Book Title: Tithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Author(s): Jain Pravachan Pracharak Trust
Publisher: Jain Pravachan Pracharak Trust

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Page 493
________________ [ જૈન દષ્ટિએ તિથિદિન અને પર્વરાધન-સંગ્રહવિભાગ पताका के नवे पृष्ठ में “वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" इस अंश की यह व्याख्या की गयी है कि किसी पर्वतिथि की वृद्धि अर्थात् दो दिन सूर्योदय काल में अस्तित्व का निर्देश टिप्पण में प्राप्त होने पर दूसरे दिन के सूर्योदय से युक्त तिथि को ही औदयिकी बनाना चाहिये, न कि पहले दिन के सूर्योदय से युक्त तिथि को। यह व्याख्या करते हुये यह भी कहा गया है कि सर्वत्र आराधना के अंग रूप से औदयिकी तिथि का विधान होने पर भी वृद्धा तिथि की आराधना दो दिन नहीं मानी जा सकती क्योंकि तिथि का आराधना के अङ्ग रूप से विधान होने के नाते आराधना प्रधान तथा तिथि गौण है और प्रधान को गौण का अनुगामी होना न्याय्य नहीं है। अतः एक ही दिन आराधना की उपपत्ति के लिये एक ही दिन उसका औदयिकीत्व अपेक्षित है, किन्तु कोई विनिगमक न होने से दोनों ही दिन पाक्षिक औदयिकीत्व प्राप्त है, इसलिये उक्त वचन पूर्व सूर्योदय से युक्त तिथि का परिसंख्यान करता है कि पूर्व सूर्योदय से युक्त तिथि औदयिकी नहीं हो सकती किन्तु द्वितीय सूर्योदय से युक्त तिथि ही औदयिकी है। इस विषय में हमारा निवेदन यह है कि पताकाकार ने “वृद्धौ कार्या तथोत्तरा” इस वचन को परिसंख्याविधि बताते हुए जो यह कहा है कि दो सूर्योदय से सम्बन्ध रखने वाली तिथि उक्त वचन के अनुसार पहले दिन औदयिकी नहीं है, वह असङ्गत है, क्योंकि जो तिथि गणितानुसार पहले दिन भी वस्तुतः औदयिकी है उस दिन उस तिथि के अनौदयिकीत्व का बोधक मानने पर वह वचन अप्रमाण हो जायगा। ___एक पर्वतिथि का दो दिन औदयिकी होना जैनागम को मान्य नहीं है अतः टिप्पण में जिस पर्वतिथि के दो दिन औदयिकी होने का निर्देश है, पहले दिन उस तिथि के अनौदयिकीत्व की घोषणा करने पर भी उक्त वचन की प्रमाणता पर किसी प्रकार का आघात नहीं पहुँच सकता। यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि जैनागम के किसी दूसरे वचन द्वारा कथित अर्थ का समर्थन उक्त अर्थ में उस वचन की प्रमाणता का आधार नहीं हो सकता। कारण कि जैनागम में उक्त अर्थ का समर्थक कोई अन्य वचन न तो आजकल उपलब्ध है और न उसकी अतीत सत्ता में ही कोई प्रमाण है । इसी प्रकार उक्त वचन के उद्घोषक की गणित की असाधारण विद्वत्ता रूप महत्ता भी उक्त अर्थ में उस वचन की प्रमाणता का आधार नहीं हो सकती क्यों कि पर्व और अपर्व रूप से तिथि का विभाजन आदि गणित का विषय नहीं है अतः उसकी सहायता से यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि जैनागम में पर्व रूप से स्वीकृत तिथियां क्षीण वा वृद्ध नहीं होती किन्तु अपर्व रूप से स्वीकृत तिथियां ही क्षीण वा वृद्ध होती हैं । अत्यन्त उत्कट तपस्या के अनुष्ठान से प्राप्त की हुई समस्त पदार्थों का साक्षात्कार करने की क्षमता रूप महत्ता भी कथित अर्थ में उक्त वचन की प्रमाणता का आधार नहीं हो सकती क्यों कि इस प्रकार की क्षमता होने पर विपरीतार्थवेदी लौकिक टिप्पण तथा पताकाकार के मतानुसार "क्षये पूर्वी तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरा” इस अन्य सम्प्रदाय के वचन का आचार्य उमास्वाति द्वारा ग्रहण किया जाना और जैनागमानुसारी दूसरे विशुद्ध टिप्पण की रचना की उपेक्षा होना । यदि यह कहा जाय कि लौकिक टिप्पण कभी कभी कतिपय पर्वतिथियों की प्रवृत्ति आदि के काल के विषय में अशुद्ध होने पर भी अन्य सभी अंशों में तो शुद्ध ही होता है अतः अशुद्ध अंश का उक्त वचन द्वारा संशोधन कर लौकिक टिप्पण को स्वीकार कर लेने की उदारता आचार्य ने प्रदर्शित की है तो यह बात भी कल्पना मात्र मूलक होने से जैनसंघ की प्रतिष्ठा के रक्षण में असमर्थ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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