Book Title: Tithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Author(s): Jain Pravachan Pracharak Trust
Publisher: Jain Pravachan Pracharak Trust

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Page 541
________________ ૧૩૮ [ જેની દષ્ટિએ તિયિદિન અને પર્વારાધન–સંગ્રહવિભાગ से भिन्न पर्व-तिथि मात्र को ही उक्त वचन का विषय मानने पर भी पर्वानन्तर पर्वतिथि के क्षय ओर वृद्धि के प्रसंग में श्रीसागरानन्दसूरि के मतानुसार पूर्व पर्वतिथियों की आराधना टिप्पणोक्त मुख्यकाल में न होने से कर्ता को कथित रीति से प्रत्यवाय भागी होना ही पड़ेगा। (२) दूसरा कारण भी श्रीसागरानन्दसूरि के उक मनोरथ की पूर्ति नहीं कर सकता, क्योंकि धर्मानुष्ठान में तिथिनिर्णय आदि के लिये जितनी सावधानी अपेक्षित है उतनी सावधानी न करने का कुफल कर्ता को भोगना ही चाहिये । श्रीसागरानन्दसूरि जी को भी यह बात माननी पड़ेगी, अन्यथा “क्षये पूर्वा' इस वचन को कल्याणकातिरिक्तपर्वतिथि-मात्र-विषयक मानने पर भी क्षीण वा वृद्ध पूर्णिमा वा अमावास्या को ध्यान में न रख कर चतुर्दशी की आराधना टिप्पणोक्त काल में कर देने पर ऐसे प्रसङ्ग में "क्षये पूर्वा” इस शास्त्र-सम्मत चतुर्दशी के काल में (त्रयोदशी के दिन ) उसकी आराधना न करने का दोष कर्ता को लगेगा ही। (३) तीसरा कारण भी उक्त अर्थ को सिद्ध करने में असमर्थ ही है, कारण कि यदि उक्त वाक्य को कल्याणकातिरिक्त-पर्वतिथि-मात्र-विषयक ही मानेंगे तो भी प्रतिमास में होने वाली १२ पर्वतिथियों में कुछ तिथियों का प्रायः प्रतिमास में क्षय वा वृद्धि होने पर अनेक स्थलों में टिप्पण को अप्रमाण मानना होगा । फिर उसी दृष्टान्त से अन्य तिथियों के भी काल के विषय में टिप्पण की प्रमाणता पर सन्देह हो जाने से सारा टिप्पण ही अविश्वसनीय वन जायगा, फलतः जिन दिनों में जिन पर्वतिथियों का क्षीण या वृद्ध रूप से अस्तित्व टिपण में निर्दिष्ट है उन दिनों में उस रूप से भी उन तिथियों की सत्ता पर सन्देह हो जाने से "क्षये पूर्वा" इस वचन की प्रवृत्ति के मूल का भंग हो जायगा। (४) प्रकरण-बल से भी उक्त वचन का कल्याणक-भिन्न-पर्वतिथिविषयकत्व नहीं सिद्ध हो सकता, क्योंकि इस प्रकार का कोई प्रकरण यहाँ प्रमाण सिद्ध नहीं है । "क्षये पूर्वा" यह वचन आचार्य उमास्वाति-प्रघोष के रूप से जैनशास्त्रों में प्रसिद्ध है। इसके आगे वा पीछे का कोई वचन किसी को ज्ञात नहीं है। फिर किस आधार से उक्त वचन को प्रधान पर्वतिथि के प्रकरण में पठित मान कर उसमें आये हुये तिथि पद का प्रधान पर्वतिथिमात्र में तात्पर्य-निश्चय किया जाय? यदि कहें कि प्रधान पर्वतिथियों के क्षय वा वृद्धि की प्राप्ति होने पर उनकी आराधना के उपपादनार्थ यह वचन प्रवृत्त हैइसी से यह कल्पना की जायगी कि यह वचन प्रधान पर्वतिथि के प्रकरण का है, तो यह भी ठीक नहीं है, क्यों कि यह वचन क्षीण वा वृद्ध पर्वतिथियों की ही आराधना के उपपादनार्थ अवतीर्ण है न कि क्षीण वा वृद्ध कल्याणक-तिथियों की आराधना के उपपा. दनार्थ अवतीर्ण है-यही कल्पना विना किसी विशेष विनिगमक के कैसे की जायगी ? दूसरी बात यह है कि यदि उक्तवाक्य में आया हुआ तिथि पद नानार्थक शब्दों के समान विजातीय अनेक अर्थों का उपस्थापन करता तो अर्थविशेष में तात्पर्य की जिज्ञासा के शमनार्थ प्रकरण की अपेक्षा होती पर तिथिपद तो तिथित्वरूप से समस्त पर्वतिथियों का एक ही वृत्ति द्वारा उपस्थापक है। अतः जब तिथि-सामान्य-वाचक "तिथि" शब्द के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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