Book Title: Tithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Author(s): Jain Pravachan Pracharak Trust
Publisher: Jain Pravachan Pracharak Trust

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Page 543
________________ १४. | [ જૈન દષ્ટિએ તિયિદિન અને પરાધન-સંગ્રહવિભાગ और वृद्धि के प्रसंग में उन्हीं की आराधना के व्यवस्थापनार्थ "क्षये पूर्वा" इत्यादि वचन उत्थित है-इस बात में कोई प्रमाण न होने से और क्षीण तथा वृद्ध कल्याणकतिथियों की भी क्षीण तथा वृद्ध प्रधान पर्वतिथियों के समान ही आराधना का सदाचार विद्यमान रहने से स्पष्ट तथा निःसंकोच रूप से हम यह कह सकते हैं कि “क्षये पूर्वा" इत्यादि वचन प्रधान-अप्रधान सभी प्रकार के आराध्य तिथियों के क्षय और वृदधि के प्रसङ्ग में उनकी आराधना की व्यवस्था करने को प्रवृत्त है। ___ इस प्रसंग में यह भी बात ध्यान देने योग्य है कि "श्रीसेनप्रश्न" के तीसरे उल्लास में श्रीहीरविजयसूरि के निर्वाण की तिथि एकादशी. जो कि कल्याणतिथि से भी निम्न श्रेणी की है, उसकी वृद्धि के प्रसंग में वृद्धा प्रधान पर्वतिथि के समान ही उसकी भी आराधना की व्यवस्था जब की गयी है तब कल्याणक तिथियों की वृद्धि आदि के प्रसंग में वृद्धा प्रधान पर्वतिथि की आराधना की रीति स्वीकार करने में किसी प्रकार का सन्देह केसे उठ सकता है ? * इस पर यदि यह तर्क करें कि “क्षये पूर्वी तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" ' इस वचन के "श्रीधीरज्ञाननिर्वाणं कार्य लोकानुगैरिह " इस उतरार्ध से भगवान् श्री महावीर के ज्ञान और निर्वाण तिथि की आराधना को लोकव्यवहार के अनुसार करने का जो आदेश दिया गया है, उससे ज्ञात होता है कि उस पूरे श्लोक का पूर्वाध अर्थात् "क्षये पूर्वा" इत्यादि भाग कल्याणक तिथियों के सम्बन्ध में लागू नहीं होता, तो यह ठीक नहीं होगा, क्यों कि उक्त ववन का उत्तरार्ध केवल श्रीमहावीर के ज्ञान और निर्वाण की तिथि की आराधना को लोकरीति के अनुसार दीपावली के दिन करने का आदेश देता है। और इस आदेश-दान की भी आवश्यकता इस लिये पड़ी है कि उक्त वचन का पूर्वार्ध क्षीण और वृद्ध होने वाली समस्त पर्वतिथियों को आराधना की एक रूप से हो व्यवस्था करता है, अतः क्षय वा वृद्धि के प्रसङ्ग में अन्य पर्वतिथियों के समान ही श्रीमहावीर के निर्वाण तिथि की भी आराधना प्राप्त होती है, जिसके परिणामस्वरूप जैन समाज में प्रचलित इस पुरानी परम्परा के कि श्रीमहावीर के निर्वाणतिथि की आराधना दीपावली के दिन ही करनी चाहिये, नष्ट हो जाने का भय उपस्थित हो जाता है। इस लिये इस प्राचीन परम्परा के रक्षणार्थ श्रीमहाबीर के निर्वाण तिथि मात्र के धर्म्य उत्सव को लोकरीति से करने का आदेश देने के लिये उक्त वचन के उत्तरार्ध की प्रवृत्ति आवश्यक हुई है, न कि सभी कल्याणकतिथियों की आराधना को लोकव्यवहारानुसार करने का आदेश देने के लिये । अतः श्रीमहावीर के ज्ञान और निर्वाण की तिथि से अतिरिक्त कल्याणक तिथियों [* मी या श३ थती परिछे वांयता य छ -क्षये पूर्वा० सोना उत्तराध तरी “ श्रीवीरज्ञाननिर्वाणं काय लोकानुगैरिह " मा ५४ ५डितानी न४२ सामे यो छ. वास्तवमा साया " श्री वीरजिननिर्वाण कार्य लोकानुगैरिह" मारीतना छे. तथा श्री महावीर भगवानना નિર્વાણકલ્યાણકની આરાધના જ લૌકિક દીપોત્સવી પર્વની સાથે કરવાનું શાસ્ત્રીય આદેશ સ્પષ્ટ જણાય છે. શ્રી મહાવીર ભગવાનના કેવલજ્ઞાનકલ્યાણકની આરાધના તે ૫ર્તારાધન અંગેની સામાન્ય व्यवस्था अनुसारे । ४२वानी ७. -.] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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