Book Title: Tithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Author(s): Jain Pravachan Pracharak Trust
Publisher: Jain Pravachan Pracharak Trust

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Page 547
________________ १४४ [ જેન દષ્ટિએ તિથિદિન અને પર્વારાધન-સંગ્રહવિભાગ अमावास्या को चतुर्दशी की, और इसी प्रकार भा० शु० पञ्चमी के क्षय के प्रसंग में तृतीया को तथा वृद्धि के प्रसंग में पहली पञ्चमी को भा० शु० चतुर्थी की आराधना का अनुष्ठान शास्त्र विरुद्ध, निष्फल और प्रत्यवाय-कारक होने से त्याज्य है। (१०) क्षीण तिथि का अत्यन्त लोप नहीं होता अत: उस तिथि की भी गणना एक स्वतन्त्र तिथि के रूप में ही होती है । एवं वृद्धा तिथि भी सूर्योदय-भेद से भिन्न नहीं होती अतः दो सूर्योदयों से स्पृष्ट होने पर भी वह एक ही गिनी जाती है। इसलिये पर्व तिथियों के क्षय और वृद्धि की वास्तविकता मानने पर भी पर्व-तिथियों की बारह संख्या में घटाव या बढ़ाव नहीं होता। (११) " उदयं मि जा तिही सा" इत्यादि और “क्षये पूर्वी तिथिः कार्या” इत्यादिइन दोनों वचनों में ऐसा उत्सर्ग-अपवादभाव अयौक्तिक और अशास्त्रीय है जिससे टिप्पणोक्त मुख्य काल में पर्वतिथि की आराधना का लोप प्राप्त होता है। (१२) (क) पञ्चाङ्ग ने जिस पर्व-तिथि वा साधारण तिथि के क्षय अथवा वृद्धि का जिस दिन जैसा निर्देश किया हो उसे ठीक वैसा ही मानना चाहिये । (ख) टिप्पण में जिस दिन जिस पर्व-तिथि की समाप्ति का उल्लेख हो उस पर्वतिथि की आराधना उसी दिन करनी चाहिये ।। (ग) टिप्पण में जिस दिन चतुर्दशी के औदयिकीत्व तथा पूर्णिमा वा अमावास्या के क्षय का निर्देश हो उसी दिन चतुर्दशी तथा पूर्णिमा वा अमावास्या की आराधनायें शास्त्रानुसार संभव हैं। इसी प्रकार जिस दिन भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के औदयिकीत्व और भा० शु० पञ्चमी के क्षय का निर्देश टिप्पण में हो उस एक ही दिन उन दोनों तिथियों की अराधनायें भी शास्त्रतः युक्त हैं। (घ) पर्वानन्तर-पर्व-तिथियों की वृद्धि के प्रसंग में पूर्व और अपर दोनों पर्वतिथियों की व्यावधानयुक्त आराधना में कोई दोष नहीं है-इतना ही नहीं, बल्कि शास्त्र में ऐसी आराधना का संकेत भी है। ___ इसलिये यह सिद्धान्त निर्विवाद है कि पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की पूज्य तिथियों की पूर्णता (समाप्ति) टिप्पण में जिस दिन निर्दिष्ट हो, जैनशास्त्र और पुरातन जैनसामाचारी के अनुसार, उसी दिन उन तिथियों की आराधना कर्तव्य है। सन्देश और उद्घोषजैनाचार्य श्रीसागरान्दसूरि और श्रीरामचन्द्रसूरि के अपने अपने पक्षों के स्थापन तथा पर-पक्ष-खण्डन के विस्तृत बिचार-प्रकार, मध्यस्थ-डॉ० श्री० पी० एल वैद्य, पूना का "निर्णय-पत्र " " आगमानुसारि-मत-व्यवस्थापन" म० म०प० चिन्नस्वामी शास्त्री की “श्रीशासनजयपताका" तथा विवाद-प्रस्त विषय से सम्बद्ध सभी उपलब्ध जैनधर्मग्रन्थों का गम्भीर पर्यालोचन कर पर्वतिथियों के क्षय तथा वृद्धि के विषय में हमलोगों ने " अर्हत्तिथिभास्कर" में जिस सिद्धान्त को प्रतिष्ठित किया है वही समस्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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