________________
૧૩૬
[ જૈન દષ્ટિએ તિથિદિન અને પરાધન-સંગ્રહવિભાગ और प्रथम प्रतिपद् में अमावास्या से व्यवधान होता है। इसलिये प्रतिपद् की वृद्धि में त्रयोदशी और चतुर्दशी में षष्ठ करके अमावास्या में उसकी पारणा करना और प्रतिपद् में एक उपवास के साथ कल्पसूत्र के श्रवण का आरम्भ करना अथवा प्रथम और द्वितीय प्रतिपद् में सम्पन्न होने वाले षष्ठके आरम्भ के साथ प्रथम प्रतिपद् में कल्पसूत्र के श्रवण का आरम्भ करना जैसे मान्य होगा उसी प्रकार अमावास्या की वृद्धि के पक्ष में भी त्रयोदशी और चतुर्दशी में किये गये षष्ठ की प्रथम अमावास्या में पारणा कर द्वितीय अमावास्या में एक उपवास के साथ अथवा द्वितीय अमावास्या और प्रतिपद् में सम्पन्न होने वाले षष्ठ के आरम्भ के साथ द्वितीय अमावास्या में कल्पसूत्र के श्रवण का आरम्भ भी माना जा सकता है । अतः अमावास्या की टिप्पणोक्त वृद्धि मानने में आनाकानी करना कदाग्रह-मात्र है।
पर्वतिथियों का क्षय और वृद्धि न मानकर उसके पूर्व और पूर्वतर अपर्वतिथियों का क्षय तथा वृद्धि मानने में एक यह भी संकट होगा कि जब पर्वानन्तर-पर्वतिथि के प्रसङ्ग में पूर्व पर्वतिथि की वृद्धि और उत्तर पर्वतिथि का क्षय साथ ही प्राप्त होगा तब पूर्व और उत्तर दोनों पर्वतिथियों की आराधना दुर्घट हो जायगी कारण कि "क्षये पूर्वा तिथिः कार्या" इस वचन के अनुरोध से क्षीणा उत्तर पर्वतिथिका औदयिकीत्व जिस दिन प्राप्त होगा उसी दिन “वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" इस वचन के बल से वृद्धा पूर्वपर्वतिथि का भी औदयिकीत्व प्राप्त होगा और एक दिन दो तिथियों का सूर्योदयकाल में अस्तित्वरूप औदयिकीत्व हो नहीं सकता। और यदि उक्त शास्त्रीय वचन के बल से दो तिथियों का औदयिकीत्व एक दिन स्वीकार भी कर लिया जाय तो भी एक दिन दो तिथियों की आराधना परमतानुसार नहीं हो सकती क्योंकि परमत में एक दिन दो तिथियों की आराधना मान्य नहीं है।
यदि कहें कि ऐसे प्रसंग में "क्षये पूर्वा तिथिः कार्या" इस वचन से क्षय-प्राप्त उत्तर पर्वतिथि के औदयिकीत्व की व्यवस्था क्षयदिन में पहले हो जायगी, अतः उस दिन सूर्योदयकाल से उत्तर तिथि की ही व्याप्ति होने से उस दिन पर्व तिथि का सम्बंध लुप्त हो जाने के कारण पर्वतिथि की वृद्धि असिद्ध हो जायगी। फलतः “वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" इस वचन की प्रवृत्ति न होने से प्रथम दिन में पूर्व पर्वतिथि के औदयिकीत्व एवं आराधना और दूसरे दिन उत्तर पर्वतिथि के औदयिकीत्व एवं आराधना की उपपत्ति हो जायगी। तो यह कथन भी ठीक नहीं है। कारण कि जब पूर्व पर्वतिथि की वृद्धि और उत्तर पर्वतिथि का क्षय दोनों ही टिप्पण-द्वारा उपस्थित हैं तब "क्षये पूर्वा तिथिः कार्या" इसी की प्रवृत्ति पहले क्यों होगी ? प्रत्युत पूर्व पर्व तिथि की वृद्धि पहले उपस्थित होने के नाते “वृद्धौ कार्या तथोत्तरा” इस वचन की ही प्रवृत्ति पहले प्राप्त होती है। अतः यह निर्विवाद है कि इस वचन की प्रवृत्ति के अंगभूत टैप्पणिक वृद्धिनिर्देश के रहते इस वचन की प्रवृत्ति नहीं रोकी जा सकती।
आचार्य उमास्वातिजी का “क्षये पूर्वा" इत्यादि वचन कल्याणक तिथियों के सम्बन्ध में नहीं है किन्तु उनसे भिन्न क्षीण एवं वृद्ध पर्वतिथियों के ही सम्बन्ध में है-यह बात जो श्री सागरानन्दसूरिजी ने कही है, वह भी ठीक नहीं है, क्यों कि उनकी इस मान्यता के जो कारण प्रतीत होते हैं, वे दोषमुक्त नहीं हैं। वे कारण निम्नलिखित हैं
(१) यदि कल्याणक-तिथियों को भी "क्षये पूर्वा" इत्यादि वचन का विषय माना जायगा तो अक्षीण अष्टमी आदि पर्व तिथियों के अनन्तर किसी कल्याणक तिथि का क्षय प्राप्त होने पर क्षय दिन में उसको औदयिकी बनाने के अनुरोध से अक्षीण पर्वतिथि को एक दिन पीछे खींचना होगा, फलतः उस अक्षीण पर्वतिथि की आराधना उसके टिप्पणोक्त मुख्यकाल में न हो सकेगी।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org