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૧ લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અહરિથિભાસ્કર ]
यदि यह शंका करें कि “ औदयिक्येकादश्याम्" इस उत्तर वाक्य का उत्तर दिन की एकादशी में यह अर्थ नहीं माना जा सकता, कारण कि यदि यह अर्थ उत्तर-कर्ता को विवक्षित होता तो “पूर्वस्यां परस्यां वा” इस प्रश्न के अनुसार उत्तर में उत्तर-कर्ता ने “औदयिक्येकादश्याम्" न कह कर " परस्यामेकादश्याम्" यही कहा होता, तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रश्न वाक्य के समान ही उत्तर वाक्य की भाषा भी होनी चाहिये यह नियम नहीं है, नियम तो इतना ही है कि उत्तर वाक्य को प्रश्न वाक्य से प्रकट होने वाली जिज्ञासा का निवर्तक होना चाहिये, सो उस नियम का पालन तो “औदयिक्येकादश्याम्" इस वाक्य से भी उक्त अर्थ को लेकर हो ही जाता है।
पर्व तिथि की वास्तविक वृद्धि के विरुद्ध एक यह भी बात श्रीसागरानन्दसूरिजी ने कही है कि यदि टिप्पण के अनुसार पर्व तिथि की वास्तविक वृद्धि मानी जायगी तो " श्रीहीर प्रश्न" में आये हुये " यदा चतुर्दश्यां कल्पो वाच्यते, अमावास्यादिवृद्धौ वा अमावास्यायां प्रतिपदि वा कल्पो वाच्यते तदा षष्ठतपः क्व विधेयम्"-चतुर्दशी के बाद भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी तक किसी तिथि की हानि होने पर चतुर्दशी में, अमावास्या की वृद्धि होने पर अमावास्या में और प्रतिपद् से भा० शु० चतुर्थी तक किसी तिथि की वृद्धि होने पर प्रतिपद में जब कल्पसूत्र का वाचन आरम्भ होता है तब षष्ठतप कब करना चाहिये ? इस प्रश्न वाक्य में प्राप्त होने वाले अमावास्या शब्द का जो विना किसी विशेषण के प्रयोग किया गया है वह असंगत हो जायगा, क्योंकि अमावास्या की वास्तविक वृद्धि मानने पर पहली अमावास्या वा दूसरी अमावास्या का केवल अमावास्या शब्द से निश्चित रूप से लाभ न होने के कारण प्रश्न वाक्यार्थ का सम्यक प्रकार से ज्ञान न होगा। श्री सा० सू० की यह बात भी ठीक नहीं है, क्योंकि भाद्र शुक्ल चतुर्थी जो पयुर्षणापर्व की प्रधान तिथि है उसे कल्पसूत्र के-वाचनारम्भ-दिन से पाँचवे दिन पडना चाहिये-यह जैनधर्म का एक सुप्रसिद्ध नियम है, इसका निर्वाह अमावास्या की वृद्धि होने पर दूसरी अमावास्या में कल्पसूत्र के वाचन का आरम्भ होने से ही होगा, अतः उक्त नियम को जानने वाले व्यक्ति को केवल अमावास्या शब्द से भी दूसरी अमावास्या का ज्ञान हो जायगा। दूसरी बात यह है कि उक्त वाक्य में अमावास्या शब्द को प्रतिपद् शब्द का सन्निधान प्राप्त है अतः इस संन्निधान के कारण भी प्रतिपद् के अव्यवहित पूर्व अमावास्या में अमावास्या शब्द का तात्पर्य सरलता से ज्ञात हो सकता है। और यदि निर्विशेषण अमावास्या के कथन से यह कल्पना की जायगी कि अमावास्या की वृद्धि वास्तविक नहीं है, किन्तु वह टिप्पणोक्त दो दिनों में से केवल दूसरे ही दिन है, तो निर्विशेषण प्रतिपद् शब्द से दूसरी प्रतिपद् का ग्रहण निराधार हो जायगा। क्यों कि अपर्वतिथि होने से प्रतिपद् की वृद्धि उन्हें भी मान्य होने के कारण उसके विषय में अमावास्या वाली नीति लागू न होगी, और यदि प्रतिपद शब्द का तात्पर्य उक्त नियम के बल से द्वितीय अमावास्या में अमावास्या शब्द के भी तात्पर्य का निश्चय होने में कोई बाधा न होने के कारण अमावास्या की वृद्धि के विरुद्ध उक्त निराधार कल्पना का समादर नहीं किया जा सकता। ___अमावास्या की वास्तविक वृद्धि मानने पर कल्पसूत्र के श्रवणके अङ्गभूत षष्ठतप का विधान न हो सकेगा, क्यों कि षष्ठतप अव्यवधान, क्रमयुक्त दो तिथियों में ही सम्पन्न होता है, पर वृद्धिपक्ष में चतुर्दशी और द्वितीय अमावास्या में तुच्छरूपाप्रथम अमावास्या से व्यवधान हो जाता है। परन्तु विचार करने पर इस आपत्ति का उद्भावन उचित नहीं प्रतीत होता क्यों कि यह आपत्ति प्रतिपद् को वृद्धि मानने के पक्ष में भी है। कारण कि उस पक्ष में भी चतुर्दशी
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