Book Title: Tithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Author(s): Jain Pravachan Pracharak Trust
Publisher: Jain Pravachan Pracharak Trust

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Page 492
________________ ૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અહતિથિભાસ્કર ] अर्थ ही हो सकता है। पताकाकार के यथोक्त दोनों व्याख्यानों की आलोचना का निष्कर्ष थोड़े में इस प्रकार कहा जा सकता है कि “क्षये पूर्वा तिथिः कार्या" यह वचन क्षीणपर्व तिथि में औदयिकीत्व का अथवा क्षीणतिथि वाले दिन के पूर्व तिथि से युक्त भाग में क्षीणतिथि का वा क्षीणतिथि के सूर्योदयावधिक अंशों का विधायक वा बोधक नहीं हो सकता, क्योंकि टिप्पण की दृष्टि से यह अशक्य एवं बाध्य है और पताकाकार की दृष्टि से उक्त अर्थ स्वतः सिद्ध होने के कारण विधिनिरपेक्ष है तथा उक्त अर्थ का बोध टिप्पण से प्रतिरुद्ध भी है। लौकिक टिप्पण “क्षये पूर्वा” इस धर्मशास्त्रीय वचन से दुर्बल है अतः उक्त वचन के विरोध में वह नहीं खडा हो सकता। यह बात भी मान्य नहीं हो सकती, क्योंकि शास्त्र अपने ही विषय में बलवान् हो सकता है न कि अन्य के विषय में। कौन तिथि कब प्रवृत्त होती है ? कब तक रहती है ? और कब निवृत्त होती है ? इत्यादि तिथिसम्बन्धी बातें टिप्पण तथा उसके उपजीव्य ज्योतिष के ही विषय हैं अतः इन बातों में शास्त्र की अपेक्षा टिप्पण और ज्योतिष का ही महत्त्व है। टिप्पण जैन शास्त्र के विरुद्ध अर्थ का बोधक होने से दुर्बल और उक्त वचन जैनशास्त्रसम्मत अर्थ का प्रकाशक होने से प्रबल है-यह भी कथन ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त वचनार्थ का समर्थक दूसरा कोई भी वचन जैनशास्त्र में अब तक उपलब्ध नहीं है। एक बात यह भी ध्यान देने की है कि पताकाकार के मत में "क्षये पूर्वा तिथिः कार्या" यह वचन आचार्य उमास्वाति का न तो अपना वचन है और न उनके द्वारा जैनशास्त्र से उद्धृत ही किया गया है, किन्तु वैदिक सम्प्रदाय के किसी ग्रन्थ से लिया गया है, फिर इस प्रकार जब टिप्पण और उक्त वचन दोनों ही परकीय हैं तथा दोनों ही आचार्य उमास्वाति से परिगृहीत हैं तो जनसङ्घ की दृष्टि में एक दुर्बल और दूसरा प्रबल कैसे हो सकता है? - 'पताका' के नवें पृष्ठ में मध्यस्थ के ऊपर यह आक्षेप किया गया है कि आचार्य सागरानन्दसूरि के मत का बडे आडम्बर से खण्डन करते हुये भी मध्यस्थ ने अन्त में उसी का समर्थन किया है। बडी विचित्र बात है कि मध्यस्थ और श्रीसागरानन्दसूरि के मत में प्रकाश और अन्धकार के समान अत्यन्त स्पष्ट भेद होते हुये भी पताकाकार को उनमें अभेद कैसे लक्षित हुआ ? मध्यस्थ के मत में उक्त वचन क्षीण पर्व तिथि में अक्षीण पर्वतिथि का कथंचित् तादात्म्य बताता हुआ उसमें औदयिकीत्व का बोधन करता है और श्रीसागरानन्दसूरि के मत में उक्त वचन क्षीण पर्वतिथि में औदयिकीत्व का विधान करता हुआ उसकी अक्षीणता पूर्वागत अपर्वतिथि की क्षीणता का प्रतिपादन करता है। फलतः मध्यस्थ के मत में टिप्पण के अनुसार पूर्व की अपर्वतिथि औदयिक और पर्वतिथि अनौदयिक बनी रहती है फिर भी उक्त वचन के आधार पर टिप्पण का विरोध किये विना ही क्षीण पर्वतिथि आराधनाङ्गता प्राप्त करने के लिये पूर्वकी औदयिक अपर्व तिथि के साथ एकात्मता प्राप्त कर औदयिक बन जाती है और श्रीसागरानन्दसूरि के मत में उक्त वचन के बल से टिप्पण की मर्यादा को कुचल कर टिप्पण में अनौदयिक बतायी हुई पर्वतिथि औदयिक और औदयिक बतायी हुई अपर्वतिथि अनौदयिक बन जाती है। इस प्रकार इन दोनों मतों का भेद जो अत्यन्त साधारण समझ रखने वाले को भी अति सुगम है वह पताकाकार के लिये दुर्गम कैसे बन ..या? यह एक महान् कौतुक है। - अब 'वृद्धौ कार्या तथोत्तरा' इस उत्तरार्ध की पताकाकार द्वारा की गयी व्याख्या का परीक्षण किया जायगा। . १२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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