Book Title: Tithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Author(s): Jain Pravachan Pracharak Trust
Publisher: Jain Pravachan Pracharak Trust

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Page 503
________________ [ જૈન દૃષ્ટિએ તિથિદિન અને પર્વોરાધન–સંગ્રહવિભાગ में परस्पर विरुद्ध बातें कहने से भी " मत पत्रक " की अप्रमाणता सिद्ध होते है-जैसे जैनटिप्पण को तिथियों की वृद्धि स्वीकार्य नहीं - इस आधार पर पूर्णिमा की वृद्धि के प्रसङ्ग प्रतिपद की वृद्धि मान्य होनी चाहिये - विजयानन्दसूरि के इस मत का खण्डन कर बाद में पूर्णिमा की वृद्धि के प्रसङ्ग में त्रयोदशी की वृद्धि का समर्थन किया गया है । सोचने की बात है कि जब जैन - टिप्पण को तिथि- वृद्धि मान्य न होने के कारण ही प्रतिपद की वृद्धि अमान्य है तो फिर त्रयोदशी की वृद्धि भी मान्य कैसे हो सकती है ? " " अष्टम्यादितिथिवृद्धौ अग्रेतन्या आराधनं क्रियते " अष्टमी आदि तिथि की वृद्धि होने पर आगे वाली तिथि की आराधना कर्तव्य होती है - इससे उपक्रम करके " वृद्धौ सत्यां स्वल्पाप्यग्रेतना तिथिः प्रमाणम् ” तिथि - वृद्धि होने पर अगले दिन की थोडी भी तिथि पहले दिन की अपेक्षा अधिक महत्त्व रखती है - इस ग्रन्थ से वृद्धिंगत तिथि की आराधना के विचार का जो उपसंहार किया गया है उससे पर्वतिथि की वृद्धि का होना स्वीकार कर लिया गया प्रतीत होता है । पर बाद में पूर्णिमा की टिप्पणोक्त वृद्धि को न मानकर त्रयोदशी की वृद्धि मानने का आदेश किया हुआ मिलता है । उसके और आगे चल कर यह बात असन्दिग्ध रूप से कही गई मिलती है कि यदि पूर्णिमा के बदले त्रयोदशी की वृद्धि न रुचे किन्तु पूर्णिमा की ही वृद्धि उचित जान पडे तो वही मानो पर आराधना पहली पूर्णिमा की न कर दूसरी की ही करो । ऊपर की बातों में परस्पर विरोध स्पष्ट रूप से लक्षित होता है, क्यों कि पहले तिथिमात्र की वृद्धि न होने के आधार पर प्रतिपत् की वृद्धि का निषेध किया गया और बाद उस आधार के रहते ही त्रयोदशी की वृद्धि मान ली गई । इसी प्रकार " सेनप्रश्न " के अनुसार पहले पर्वतिथि की वृद्धि की मान्यता बताकर बाद उसे छोड उसके बदले पूर्वागत अपर्वतिथि की वृद्धि का समर्थन कर दिया गया और अन्त में पहली पूर्णिमा की अग्राह्यता और दूसरी की ग्राह्यता बताते हुए पर्वतिथिकी वृद्धि के पक्ष में भी सम्मति दे दी गयी । १०० " मतपत्रक" में कदाग्रह के वशीभूत हो कर कुमार्ग की सृष्टि मत करो, पूर्णिमा की वृद्धि के प्रसङ्ग में चुपचाप त्रयोदशी की वृद्धि मान लो, अन्यथा उच्छृङ्खल प्ररूपण करते रहने पर संसार से कभी निस्तार न पावोगे - इस प्रकार प्रश्नकर्ता को शाप देने का जो निर्देश है उससे भी उसकी प्रमाणता पर आघात पहुँचता है । क्यों कि " मतपत्रक " में उपलब्ध होने वाले प्रश्नोत्तर या तो दो वादियों के बीच के हो सकते हैं या शिष्य और गुरु के बीच के हो सकते हैं। यदि वादियों के बीच हों तो उनमें किसी को भी दूसरे को इस प्रकार अभिशाप देने का अधिकार नहीं है, अन्यथा ऐसी विचार चर्चा का पर्यवसान परस्पर - अधिक्षेप ही होगा । और यदि शिष्य तथा गुरु के बीच हो तो गुरु को विशद और विस्तृत भाषा में युक्ति, प्रमाण आदि के द्वारा शिष्य का प्रबोधन ही गुरु का प्रशस्त कर्तव्य है न कि वैसा बिना किये ही कोप कर शिष्य को शाप देना, पर " पत्रक" की कुछ ऐसी ही स्थिति है क्यों कि इस में प्रतिपादनीय पक्ष के समर्थनार्थ युक्ति आदि की किश्चित् भी चर्चा की हुई नहीं मिलती । रचयिता का ठीक पता न होने के कारण भी " मतपत्रक " की अप्रमाणता सिद्ध होती है क्यों कि शब्द मात्र को पौरुषेय मानने वाले जैन - सम्प्रदाय में शब्द का प्रामाण्य कर्ता की आप्तता पर ही निर्भर है, इसीलिये आगम भी सर्वज्ञ तीर्थंकर द्वारा प्रवर्तित होने के नाते ही प्रमाण माना जाता है । तो ऐसी स्थिति में जिसके रचयिता का ठीक पता न हो और जिसके प्रतिपाद्य विषय का किसी अन्य सुनिश्चित प्रमाण से संवाद न हो ऐसे इस " मतपत्रक" को धार्मिक जैनसङ्घ द्वारा आदर कैसे प्राप्त हो सकता है ? श्रीविजयदेवसूरि से रचित होने के Jain Education International में For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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