Book Title: Tithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Author(s): Jain Pravachan Pracharak Trust
Publisher: Jain Pravachan Pracharak Trust

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Page 530
________________ ૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયના સમર્થક શ્રી અર્હત્તિથિભાસ્કર ] १२७ अभाव मानते है और आराधना की दृष्टि से तो उस क्षीणतिथि की भी सत्ता और व्यवहार वे प्रधान रूप से मानते हैं । अतः तिथि-क्षय की सत्यता स्वीकार करने पर भी उक्त वचन में क्षीण पूर्णिमा का निर्देश असङ्गत नहीं हो सकता । क्षीण आषाढ़ पूर्णिमा के दिन चतुर्दशी की सत्ता मानने पर पाक्षिक पर्वतिथि तथा उदयकालिक होने के नाते उसी का नामग्रहण उचित प्रतीत होता है, न कि आषाढ़ पूर्णिमा का । अतः पूर्णिमा के नाम-ग्रहण से यही बात सिद्ध होती है कि उस दिन आरम्भ से अन्त तक पूर्णिमा ही है, चतुर्दशी तो उसके पूर्व दिन में ही है। इसलिए आषाढ पूर्णिमा के क्षय-प्रसङ्ग में त्रयोदशी के क्षय की ही वास्तविकता सिद्ध होती है । किन्तु विचार करने से यह बात भी ठीक नहीं जँचती । क्योंकि एक ही दिन चतुर्दशी और पूर्णिमा होने पर चतुर्दशी का प्राधान्य होते हुए भी यहाँ उसका नाम ग्रहण उचित नहीं हो सकता, कारण कि यहाँ उसी तिथि का नाम बताना है जिससे बीसवीं रात्रि के बाद एक स्थान में चार्तुमास के अन्त तक ठहरने का निश्चय कर लेना मुनि के लिये आवश्यक है और जिससे पचासवीं तिथि को पर्युषणा - पर्व पडे । पूर्णिमा से पचासवीं तिथि भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी पर्युषणा की प्रधान तिथि पडती है । अतः उसी का नाम -ग्रहण यहां पर उचित है । चतुर्दशी को लेने से भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी एक्यानवीं तिथि पडेगी, अतः उसका नाम ग्रहण नहीं किया गया। आषाढ पूर्णिमा के क्षय के दिन जब दोनों तिथियों की सत्ता मान्य है तो दोनों का ही निर्देश उचित होने से एक का ही निर्देश क्यों किया गया ? यह शंका भी निराधार है क्यों कि “निशीथचूर्णि " का उक्त वचन उस दिन का सर्वाङ्गीण परिचय देने के निमित्त नहीं प्रवृत्त है, जिससे कि उभय के अनिर्देश और एक मात्र के निर्देश का अनौचित्य प्राप्त हो । चौथे प्रकार' से " क्षये पूर्वा" इस शास्त्र को क्षीणतिथि की आराधना का उपपादक मानने वाले लोगों का अभिप्राय यह है कि जिस दिन अष्टमी आदि तिथियों का अनौदयिकीत्व-रूप क्षय होता है उस दिन सूर्योदयकाल में होने वाली सप्तमी आदि तिथियों में ." क्षये पूर्वा " यह शास्त्र अपूर्व विधि की पद्धति से अष्टमी के तादात्म्य आदि के विधान से क्षीण अष्टमी आदि तिथियों को फलतः औदयिकी बना कर उन्हें आराधनार्ह बना देता है । सप्तमीत्व, अष्टमीत्व आदि धर्मों में परस्पर विरोध होने के कारण सप्तमी, अष्टमी आदि का परस्पर - तादात्म्य अनुचित है, यह शंका नहीं करनी चाहिये, क्यों कि विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों की एकनिष्ठता जैनशास्त्र को स्वीकृत है। अतः एक तिथि में आराधना आदि की अपेक्षा अष्टमीत्व के तथा लौकिक निमित्तान्तर की अपेक्षा सप्तमीत्व के समावेश होने में कोई बाधा नहीं है । यह बात केवल औत्प्रेक्षिक नहीं है किन्तु " तत्त्वतरंगिणी " के " नन्वौदयिकतिथिस्वीकारेप्रायश्चित्तादिविधौ चतुर्दश्येवेति व्यपदिश्यमानत्वात् " इस ग्रन्थ पर आधारित है । इस ग्रन्थ के पूर्व भाग में तपागच्छी के प्रति " खरतर " का यह प्रश्न प्रदर्शित किया गया है कि त्रयोदशी का चतुर्दशी - रूप से स्वीकार करना किस प्रकार शक्य हो सकता है ? इस प्रश्न का बीज निश्चित रूप से त्रयोदशीत्व और चतुर्दशीत्व के विरोध में निहित है। तपागच्छ की ओर से इस प्रश्न का यह उत्तर दिया गया है कि त्रयोदशी प्रायश्चित्तादि विधि में चतुर्दशी - रूप से ही व्यपदिष्ट होती है । इसका स्पष्ट भाव यही है कि प्रायश्चित्तादिकी अपेक्षा से त्रयोदशी में चतुर्दशीत्व का होना विरुद्ध नहीं है । अतः चतुर्थ प्रकार को स्वीकार करने वालों का यह कहना अत्यन्त युक्त है कि जब क्षीणतिथि की पूर्वतिथि का क्षय माने १ देखिये हि० पु० पृ० सं० ६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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