Book Title: Tithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Author(s): Jain Pravachan Pracharak Trust
Publisher: Jain Pravachan Pracharak Trust

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Page 531
________________ ૧૨૮ || જૈન દષ્ટિએ તિથિદિન અને પરાધન-સંગ્રહવિભાગ बिना भी उक्त रीति से क्षीणतिथि में आराधनानुगुण औदयिकीत्व उपपन्न हो सकता है तब उसके लिये क्षोणतिथि के दिन आरम्भ से ही उसी की सत्ता मानने और उसके पूर्व की अपर्व तिथि का क्षय करने की श्रीसागरानन्दसूरि की धारणा नितान्त भ्रममूलक है। इसी प्रकार पूर्णिमा वा अमावास्या के क्षय के दिन आराधना-द्वय-रूप अपेक्षा भेद से चतुर्दशीत्व तथा पूर्णिमात्व वा अमावास्यात्व इन दोनों धर्मों का अस्तित्व होने के कारण पूर्णिमा-क्षय के दिन पूर्णिमा-मात्र को तथा अमावास्या-क्षय के दिन अमावास्या-मात्र को औदयिकी मानने एवं चतुर्दशी को त्रयोदशी के दिन औदयिकी मान कर उसके पूर्व दिन में त्रयोदशी का क्षय स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। - "वृद्धो कार्या तथोत्तरा” इस उत्तरार्ध के सम्बन्ध में भी चतुर्थ-प्रकार-वादियों का ऐसा ही मन्तव्य है। उनका भाव यह है कि एक तिथि की आराधना एक ही दिन होनी चाहियेयही जैन शास्त्र और जैनसदाचार से प्राप्त है। इस कारण जो तिथि दो दिन औदयिकी होगी उसकी आराधना पूर्व और उत्तर दिन में विकल्प-रूप से प्राप्त होती है। और इस विकल्पप्राप्ति का परिहार करने के लिए ही “वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" इस वचन की प्रवृत्ति है। उनके मतानुसार इस-वचन का अर्थ यह है कि जो तिथि दो दिन सूर्योदय का स्पर्श करती है आराधना की अपेक्षा वह दूसरे ही दिन औदयिकी वा अष्टमी आदि रूप है, अर्थात् पहले दिन निमित्तान्तर की अपेक्षा औदयिकी और अष्टमी आदि रूप होते हुये भी आराधना की अपेक्षा अनौदयिकी और अष्टमीत्व आदि से शून्य ही है। इन लोगों के अनुसार “क्षये पूर्वा तिथिः कार्या” इस भाग का अर्थ इस प्रकार है-क्षयेटिप्पण के द्वारा तिथि वा पर्व तिथि का क्षय ज्ञात होने पर, पूर्वा तिथिः-सप्तमी आदि औद. यिकी तिथि, कार्या-आराधना के लिये अष्टमी आदि रूप से ग्राह्य है । “वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" इस भाग का अर्थ इस प्रकार है-तथा वृद्धौ-और तिथि वा पर्वतिथि की वृद्धि होने पर.("तथा" शब्द चकार के अर्थ "और" में है ) उत्तरा-अग्रिम-दिन-विशिष्ट तिथि ही, यह अर्थ (“ तथा" शब्द को तिथि का परामर्शक मानने से एवं “वृद्धौ उत्तरा तथा" इस प्रकार की योजना करने से भी निकल सकता है) कार्या-आराधना के लिये औदयिकी अष्टमी आदि रूप से मान्य है। ____ " निर्णय-पत्र" में मध्यस्थ द्वारा की गई “क्षये पूर्वा" इत्यादि शास्त्र की व्याख्या इस चौथे प्रकार पर ही आश्रित जान पडती है। ___ पांचवें प्रकार को माननेवालों का कहना यह है कि “क्षये पूर्वा तिथिः कार्या" यह शास्त्रवाक्य क्षीण अष्टमी आदि पर्व तिथियों के प्रतिनिधि रूप से उस दिन की सप्तमी आदि तिथियों की ही आराधना के द्वारा क्षीण पर्व तिथियों की आराधना की सम्पन्नता मानने का निर्देश करता है। इनके अनुसार उक्त वचन की व्याख्या इस प्रकार होगी-क्षय-टिप्पण में अष्टमी आदि पर्वतिथियों का क्षय प्राप्त होने पर, पूर्वा-अष्टमी आदि के पूर्व की सप्तमी आदि तिथि, तिथिः-अष्टमी आदि तिथियों की प्रतिनिधि, कार्या-मानी जानी चाहिये, अर्थात् अष्टमी आदि के प्रतिनिधि रूप से आराधनार्थ ग्रहण की जानी चाहिये। अब यहाँ यदि कोई यह प्रश्न करे कि इस व्यवस्था में तो आराधना वस्तुतः सप्तमी आदि पर्व तिथियों की ही होगी तो फिर उस आराधना को अष्टमी आदि की आराधना कैसे कहा जायगा और उससे अष्टमी आदि की आराधना का फल भी कैसे होगा? तो उसका उत्तर यह है कि प्रतिनिधि के प्रति होनेवाले व्यवहार मूल पुरुष के प्रति होनेवाले व्यवहार माने जाते हैं तथा वैसा ही फल भी १ देखिये हि० पु० पृ० सं० ६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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