Book Title: Tithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Author(s): Jain Pravachan Pracharak Trust
Publisher: Jain Pravachan Pracharak Trust

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Page 528
________________ 1 લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અહરિથિભાસ્કર ] ૧૨૫ इस शास्त्र को क्षीणपर्व तिथि की आराधना का उपपादक मानने में कोई दोष नहीं हैं। श्रीरामचन्द्रसूरि ने उन्हीं प्रकारों से उक्त शास्त्र को क्षीण पर्व तिथि की आराधना का व्यवस्थापक माना है। उनके मतानुसार उक्त शास्त्र की व्याख्या इस प्रकार समझनी चाहिये क्षये-तिथि वा पर्वतिथि के क्षय (सूर्योदय काल में असम्बन्ध ) का निर्देश टिप्पण में प्राप्त होने पर, पूर्वा-अपने पूर्व सूर्योदय से आरम्भ होने वाले-फलतः अपनी समाप्ति-वाले दिन की तिथि की आराधना करनी चाहिये। पर्व तिथियों की आराधना का विधान करने वाले, जिस दिन जो तिथि औदयिकी हो उस दिन को उस तिथि की आराधना का अंग बतलाने वाले और क्षीण पर्व तिथि की आराधना की व्यवस्था करने वाले इन सभी शास्त्र-वचनों की पारस्परिक एक-वाक्यता से जैन शास्त्रों का यह आदेश फलित होता है कि समस्त पर्व तिथियों की आराधना उनकी समाप्ति के दिन करनी चाहिये। श्रीरामचन्द्रसूरि के इस प्रामाणिक वक्तव्य का आदर करने में किसी अप्रकट कारण वश असमर्थ होने से श्रीसागरानन्दसूरि ने “क्षये पूर्वा" इस शास्त्र की आराधना-विधायकता का खण्डन करने के लिये यह हेतु उपस्थित किया है कि पर्व तिथियों की आराधना शास्त्रान्तर से प्राप्त है अतः "क्षये पूर्वा" इस शास्त्र में उसका विधान नहीं माना जा सकता, क्योंकि विधान सर्वदा अप्राप्त वस्तु का ही होता है। पर इस हेतूपन्यास से भी उनका मनोरथ नहीं सिद्ध हो सकता, कारण कि जिन लोगों का यह भ्रम: शास्त्र औदयिकी पर्व तिथियों की ही आराधना का विधान करते हैं उनकी दृष्टि में क्षीण पर्व तिथियों की आराधना नहीं प्राप्त हो सकती, अतः वैसे लोगों के लिये “लये पूर्वा” इस शास्त्र को आराधना का विधायक मानना सम्भव है तथा आवश्यक भी है। श्रीरामचन्द्रसूरि ने इसी दृष्टि से उस शास्त्र को आराधना का विधायक कहा है। पर उनके वक्तव्यों को थोडी सावधानी से देखने पर उनका यह मत स्पष्ट हो जाता है कि उक्त शास्त्र क्षीण पर्व तिथि की आराधना का विधान करने के लिये नहीं प्रवृत्त है किन्तु क्षीण पर्व तिथि की समाप्ति जिस दिन होती है उस दिन को क्षीण तिथि की आराधना का अंग बतलाते हुये उसकी आराधना की व्यवस्था करने के लिये • प्रवृत्त है। यह तथ्य गुजराती भाषा में प्रकाशित उनके "स्वपक्षस्थापन" नामक निबन्ध के निम्न उद्धरण से व्यक्त होता है-"क्षये पूर्ण तिथिः कार्या" अगर "क्षये पूर्वा तिथिह्या" ए आज्ञा जे पर्व तिथि उदय तिथि रूपे प्राप्त थतीज न होय तेवी पर्व तिथि की मान्यताआराधना नो दिवस नक्की करवाने माटेज छे।" श्री सागरानन्दसूरि ने श्रीरामचन्द्रसूरि द्वारा प्रकट किये गये उक्त शास्त्रीय सिद्धान्त पर आघात पहुँचाने की भावना से एक और बडी छिछली बात कही है। और वह यह है कि श्रीरामचन्द्रसूरि, पर्वतिथि के क्षय में एक मास में ग्यारह ही पर्व तिथियों मानते हैं और वृद्धि के प्रसंग में तेरह मानते हैं। इसलिये उनके मत में “क्षये पूर्वा" यह शास्त्र ही निरर्थक हो जाता है। क्योंकि उसकी सार्थकता प्रतिमास में द्वादशपर्वी की आराधना के नियम का निर्वाह कराने से ही होती है। अतः जब पर्वतिथियों की बारह संख्या होने का नियम न रहेगा तब उस शास्त्र की निरर्थकता की आपत्ति अनिवार्य होगी। इस सम्बन्ध में हम यह कहने को बाध्य हैं कि उनकी यह बात नितान्त निराधार एवं मिथ्या है। पता नहीं कि किस आधार पर उन्होंने पर्यों की संख्या के बारे में श्रीरामचन्द्रसूरि का यह मत गढ लिया, जब कि तिथि के अनौदयिकीत्व रूप क्षय से तिथि का लोप और दो दिन औदयिकी होने रूप वृद्धि से तिथि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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