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| [ જૈન દષ્ટિએ તિથિદિન અને પરાધન-સંગ્રહવિભાગ इस अंश को लेकर पताकाकार ने मध्यस्थ को समग्र जैनशास्त्रों को सर्वथा अप्रमाण और असत् शास्त्र घोषित करने वाला बताकर मध्यस्थ के प्रति जैन जनता में क्षोभाग्नि भडकाने की जो अयोग्य पद्धति ग्रहण की है उससे उनके स्वभावकी अद्भुत समीचीनता का आभास मिलता है।
मध्यस्थ के उक्त कथन का सत्य तात्पर्य तो यह प्रतीत होता है कि "क्षये पूर्वा" इत्यादि वचन की निजी व्याख्या के समर्थनार्थ श्रीसागरानन्दसूरि ने शास्त्र के नाम पर जो “मतपत्रक" उपस्थित किया है वह और उसके सदृश जो दूसरे भी हों, वह सब शास्त्र नहीं किन्तु शास्त्राभास हैं। इतना ही नहीं, “ सेनप्रश्न" आदि ग्रन्थों के जिन शास्त्रीय वचनों को उन्होंने अपने पक्ष के समर्थन में उपस्थित किया है वह भी-"पर्वतिथियों का क्षय और वृद्धि मिथ्या है किन्तु वैसे प्रसंग में उनके पूर्व की अपर्वतिथियों का क्षय और वृद्धि ही सत्य है" इस सागरानन्दसूरि के विवक्षित अर्थ में शास्त्राभास ही हैं।
इस पर प्रश्न उठ सकता है कि “सेनप्रश्न" आदि ग्रन्थों को शास्त्राभास कह कर मध्यस्थ ने जैन शास्त्रों की अवमानना तो अवश्य ही की, फिर उनको इस दोष से कैसे बचाया जा सकता है ? इसका उत्तर हमारी ओर से यह है कि मध्यस्थ यदि दोषी हों तो उनका बचाव करना हमारी दृष्टि में गह है, पर इस सम्बन्ध में मध्यस्थ दोषी ही नहीं हैं। क्यों कि शास्त्रीय मीमांसा से जिस शास्त्रका तात्पर्य जिस अर्थ में प्रतिष्ठित न हो सके उस अर्थ में वह शास्त्र की संज्ञा पाने का अधिकारी नहीं होता-यही बात सर्वसम्मत है। यही कारण है जिससे वैदिक सम्प्रदाय में अनादि सर्वज्ञ परमेश्वर से रचित या अपौरुषेय तथा नित्य निर्दोष माने जाने वाले वेद भी दृष्ट अर्थ के समर्थन में लगाये जाने पर उस अर्थ में अप्रमाण कहे जाते हैं। विचार करने पर यही बात उचित भी जान पडती है, क्यों कि पूर्वापर सन्दर्भ से अविरुद्ध और सत्तर्क से परिशुद्ध अर्थ में ही शास्त्रों के शास्त्रत्व की प्रतिष्ठा है। अन्यथा जो सम्प्रदाय जिन शास्त्रों को आधार मान कर उनके चिरन्तन-परम्परा-स्वीकृत जिन अर्थों के अनुसार आत्म-कल्याण की साधना में संल्लग्न हैं, पूर्वापर-समन्वय और सत्तर्क की उपेक्षा कर उन शास्त्रों के उन अर्थों से विरुद्ध अर्थ को भी कल्पना कर और उन प्रतिकूल अर्थों पर भी शास्त्रीयता की मुद्रा लगा कर उन सम्प्रदायों में विक्षोभ पैदा करने वाला विरुद्ध वासना से वासित आधुनिक जनवर्ग भी अपने नवकल्पित अर्थ के अनुसार अपने दृष्टिकोण से आत्मकल्याण का भाजन बन सकेगा। और यदि यह स्वीकार करने में कोई बाधा न समझी जाय तब तो कुछ वगं द्वारा अपने वाग्बुद्धि-वैभव और उच्छंखल तर्को से जैनशास्त्र के कतिपय वचनों का हिंसा, असत्यभाषण और पर-वञ्चना आदि अर्थ करने पर जैनसंघ को उस अर्थ में भी जैन शास्त्र को शास्त्र कहने के लिये तय्यार होना चाहिये। ___ इस लिये विचार से यही सिद्ध होता है कि अयौक्तिक, शास्त्र के अनेक वचनों से विरुद्ध और शास्त्र के एक भी वचन से प्राप्त न होने वाले श्रीसागरानन्दसूरि-सम्मत अर्थ में जैनशास्त्रों को शास्त्राभास और प्रमाणाभास कह कर मध्यस्थ ने उनके शास्त्रत्व और प्रामाण्य की जो पूर्णरूपेण रक्षा की है उसके लिये बुद्धिमान् एवं धर्मप्राण जैनसंघ को ओर से विद्वान् मध्यस्थ को अनेक धन्यवाद मिलने चाहिये।
"निर्णयपत्र" के नवे पृष्ठ में मध्यस्थ ने कहा है कि "वाक्यार्थ के निर्णय में प्रकरण अति दुर्बल प्रमाण है।" इस कथन का अभिप्राय समझने का कुछ भी यत्न बिना किये ही पताकाकार ने "पताका" के पचीसवें पृष्ठ में बहुत कुछ कह डाला है। इस लिये पताकाकार के उस प्रयास की अकाण्ड-तांडवता के प्रशापनार्थ मध्यस्थ का एतद्विषयक तात्पर्य प्रकट कर देना आवश्यक है।
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