Book Title: Tithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Author(s): Jain Pravachan Pracharak Trust
Publisher: Jain Pravachan Pracharak Trust

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Page 524
________________ ૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અહરિથિભાસ્કર ]. ૧૨૧ तो इस प्रकार जब चतुर्दशी के अनुष्ठान के साथ पूर्णिमा के अनुष्ठान का हो जाना सम्भव है तो फिर क्षीण पूर्णिमा की आराधना के लिये पूर्णिमाक्षय के दिन से चतुर्दशी को पीछे घसीटने की श्रीसागरानन्दसूरि की बात कैसे संगत हो सकती है ? __“तत्त्वतरंगिणी" में पाँचवीं गाथा की व्याख्या में “ खरतर" के प्रश्न का उत्तर देते हुए " चतुर्दश्यां द्वयोरपि विद्यमानत्वेन तस्या अप्याराधनं जातमेव” इस ग्रन्थ से कहा गया है कि चतुर्दशी के दिन चतुर्दशी और पूर्णिमा दोनों के विद्यमान रहने से पूर्णिमा की भी आराधना हो जाती है । “पूर्णिमा की भी" कहने से स्पष्ट ही सूचित होता है कि उस दिन चतुर्दशी की आराधना तो होती ही है पर साथ ही पूर्णिमा की भी आराधना सम्पन्न हो जाती है । इसी प्रकार उस ग्रन्थ में अठारहवीं गाथा की व्याख्या में भी “ एवं क्षीणतिथावपि कार्यद्वयमद्य कृतवानहमित्यादयो दष्टान्ताः स्वयमूह्याः” इस वाक्य से क्षीणपूर्णिमा के दिन क्षीणपूर्णिमा और चतुर्दशी दोनों की आराधना रूप दो कार्यों का होना स्पष्ट शब्दों में कहा गया है। "तत्त्वतरंगिणी" में पाँचवी गाथा की व्याख्या में कहा गया है कि जैसे घट और पट से युक्त भूतल में घट और पट के अस्तित्व का ज्ञान भ्रमरूप नहीं होता उसी प्रकार सूर्योदय के समय त्रयोदशी से और अन्य समयों में चतुर्दशी से युक्त दिन को चतुर्दशी के अस्तित्व का ज्ञान भी आरोप-रूप नहीं हो सकता, कारण कि उस दिन त्रयोदशी और चतुर्दशी इन दोनों तिथियोंके समाप्त होने के नाते उस दिन उन दोनोंका अस्तित्व है। यह कथन, चतुर्दशी के क्षय के दिन अकेली चतुर्दशी का ही अस्तित्व होता है त्रयोदशी का नहीं-इस श्रीसागरानन्दसूरि के मत के प्रतिकूल है, क्यों कि उस दिन यदि चतुर्दशी-मात्र का अस्तित्व सम्मत होता तो चतुर्दशी से युक्त दिन में चतुर्दशी के अस्तित्व का शान भ्रम रूप नहीं हो सकता इस बात के समर्थन में दृष्टान्त-रूप से घट युक्त भूतल में घटास्तित्व के ज्ञान का ही प्रदर्शन करना चाहिये था न कि घट और पट-इस उभय से युक्त देश में घट और पट के अस्तित्वशान का । एवं उस दिन अस्तित्व भी चतुर्दशीमात्र का ही बताना चाहिये था न कि त्रयोदशी तथा चतुर्दशी दोनों का । किन्तु उक्त स्थल में तो समाप्ति के आधार पर दोनों के ही अस्तित्व का समर्थन किया गया है। ... ' इसी प्रकरण में चतुर्दशी के दिन क्षीण पूर्णिमा की आराधना का समर्थन करने वाले तपागच्छी विद्वानों के प्रति “खरतर" का यह प्रश्न मिलता है कि क्या जब दो तीन कल्याणकतिथियाँ क्रम से आती हैं तब भी आप ऐसा ही करते हैं । इस प्रश्न का आशय सुनिश्चितरूप से यही है कि जैसे पूर्णिमा के क्षय में चतुर्दशी के दिन ही क्षीण पूर्णिमा और चतुर्दशी दोनों की आराधनायें आपको मान्य हैं क्या उसी प्रकार क्रमागत कतिपय कल्याणकतिथियों में अन्तिम तिथि का क्षय होने पर एक ही दिन क्षीण और अक्षीण कल्याणक तिथियों की आराधनायें भी आप को मान्य हैं? श्रीसागरानन्दसूरि को इस प्रश्न पर भी दृष्टि देनी चाहिये और सोचना चाहिये कि उनके मत में यह प्रश्न कैसे उपपन्न होगा? क्योंकि उनके कथनानुसार तो चतुर्दशी के दिन चतुर्दशी और क्षीणपूर्णिमा इन दोनों की आराधनावों का तपागच्छ के तात्कालिक विद्वानों द्वारा समर्थन किया जाना मान्य नहीं है। उक्त प्रश्न का उत्तर तपागच्छ की ओर से जब यह दिया गया कि पूर्व की अक्षीण कल्याणक-तिथि के दिन उस तिथि और आगे की क्षीण कल्याणक-तिथि-इन दोनों के विद्यमान रहने से उस एक ही दिन इन दोनों की आराधनायें साथ ही हो जाती हैं, तब "खरतर"ने पुनः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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