Book Title: Tithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Author(s): Jain Pravachan Pracharak Trust
Publisher: Jain Pravachan Pracharak Trust

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Page 512
________________ ૧ લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયના સમર્થક શ્રી અર્હત્તિથિભાસ્કર ] ૧૦૯ प्रकृत में मध्यस्थ का तात्पर्य - यह जान पडता है कि प्रकरण चाहे तात्पर्य - निश्चय का सम्पादन कर वाक्यार्थनिर्णय का प्रयोजक हो और चाहे " शब्दशक्तिप्रकाशिका " में जगदीश तर्कालंकार की बताई रीति से साक्षात् ही वाक्यार्थ- निर्णय का कारण हो, दोनों ही दशा में उसका उपयोग अनेकार्थक पद वाले वाक्य के अर्थ-निर्णय में ही सम्भव है, अतः सार्वत्रिक न होने से वाक्यार्थ-निर्णय के अन्य कारणों की अपेक्षा प्रकरण दुर्बल गिना जाता है, असार्घत्रिकता इसकी दुर्बलता है | अतः " क्षये पूर्वा तिथिः कार्या " इस वचन में आये हुये " तिथि ” पद को अनेकार्थक न होने के कारण तथा " तिथि" पद का तिथि - सामान्यरूप अर्थ स्वीकार करने में कोई बाधा न होने के कारण वचन के अर्थ-निर्णय में प्रकरण का कोई उपयोग वा अवसर नहीं है, इस लिये श्रीसागरानन्दसूरि ने “ तिथि " पद का कल्याणक - तिथि से भिन्न पर्वतिथि मात्र जो अर्थ किया है वह युक्तिसंगत नहीं है । और यदि मीमांसाशास्त्र में कथित तृतीय-स्थान- स्थित प्रकरण का बल विवक्षित तो वह भी ठीक नहीं है कि वैसा कोई प्रकरण प्रकृत में नहीं है और दूसरी बात यह है कि वह युक्तियां भी प्रकृत में नहीं हैं जिनके बल पर प्रकरण प्राप्त अर्थ की ग्राह्यता स्वीकार करने की पद्धति का समादर है । “ निर्णय - पत्र ” के नवें पृष्ठ में मध्यस्थ ने एक स्थान में कहा है कि तिथियों का पर्व और अपर्वरूप से विभाग नहीं है और पुनः अष्टमी, चतुर्दशी आदि को प्रधान पर्वतिथि भी स्थानान्तर में कहा है, इसको देख कर कुछ लोगों के मन में यह शंका उठ सकती है कि मध्यस्थ ने परस्पर — व्याहत वचन का प्रयोग कर अपने को निम्न स्तर में स्वयं रख दिया है, इस लिये उक्त कथन का उचित प्रतीत होने वाला आशय यहाँ व्यक्त कर दिया जाता है। मध्यस्थ का तात्पर्य तिथियों का पर्व और अपर्व इन दो श्रेणियों में विभाग का निषेध करने में नहीं है किन्तु उनका अभिप्राय यह है कि “ क्षये पूर्वा तिथिः कार्या ” इस वचन के सम्बन्ध में तिथियों का उक्त विभाग करना असंगत है, अर्थात् श्रीसागरानन्दसूरि ने कल्याणक - तिथि से अतिरिक्त पर्वतिथियों में ही " क्षये पूर्वा " इस वचन को नियन्त्रित करने के लिये जो कल्याणक तिथियों को अपर्वतिथि या साधारण पर्वतिथि की श्रेणी में और अष्टमी, चतुर्दशी • आदि तिथियों को पर्वतिथि या प्रधान पर्वतिथि की श्रेणी में रखने की योजना की हैं वह अप्रामाणिक है, इस लिये अष्टमी, चतुर्दशी आदि तिथियों के समान ही कल्याणकतिथियों के क्षय और वृद्धि का अवसर आने पर उनकी आराधना की भी व्यवस्था इस वचन के अनुसार ही करनी चाहिये, अतः उक्त वचन में आये " तिथि -" पद को प्रधान - अप्रधान सर्व-साधारण - तिथि - परक मानना ही न्याय्य है । " पताका " के छब्बीसवें पृष्ठ मैं पताकाकार ने कहा है कि " 'आराधना में पर्वतिथि का क्षय और वृद्धि मान्य नहीं है " यह श्रीसागरानन्दसूरि का मत है । इस कथन से ज्ञात होता है कि पताकाकार को विवादग्रस्त मतों की ठीक जानकारी ही नहीं है, क्यों कि यह तो श्रीरामचन्द्रसूरि का भी मत है कि आराधना में पर्व तिथि का क्षय और वृद्धि मान्य नहीं है, जिसका सीधा अर्थ यह है कि क्षीण और वृद्धिंगत पर्वतिथि की आराधना का लोप नहीं होता । मतभेद तो इस अंश में है कि श्रीसागरानन्दसूरि के विचार से पञ्चाङ्ग में निर्दिष्ट पर्व- तिथियों का क्षय और वृद्धि असत्य है, उसके बदले पूर्व की अपर्वतिथियों का क्षय और वृद्धि " क्षये पूर्वा" इत्यादि वचन के अनुसार सत्य है, और श्रीरामचन्द्रसूरि के विचार से पर्वतिथि का पञ्चाङ्गो क्षय तथा वृद्धि अन्य तिथियों के क्षय, और वृद्धि के समान ही सत्य है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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