Book Title: Tithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Author(s): Jain Pravachan Pracharak Trust
Publisher: Jain Pravachan Pracharak Trust

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Page 509
________________ १०६ [ જૈન દૃષ્ટિએ તિથિદિન અને પૌરાધન–સંગ્રહવિભાગ सम्मति सिद्ध नहीं है । और उसकी सिद्धि न होने तक सामान्यतः विजयदेवसूरि की सामाचारी में जीतव्यवहारसिद्धता प्रमाणित हो जाने पर भी प्रकृत में कोई उपकार नहीं है । इस प्रसंग में यह भी एक ध्यान देने की बात है कि कहीं तो विजयदेवसूरि की सामाचारी की जीत - व्यवहार सिद्धता और कहीं पर उसकी जीतव्यवहारता को सिद्ध करने में पताकाकार व्यस्त जान पडते हैं । इस लिये उन्हें स्पष्ट बता देना चाहिये कि उनका आशय क्या है ? क्या श्री सागरानन्दसूरि-सम्मत अर्वाचीन परिग्रह से विजयदेवसूरि की सामाचारी को सप्रमाण सिद्ध करने की कामना है ? अथवा विजयदेवसूरि की सामाचारी के सहारे अर्वाचीन परिग्रह को प्रमाणमूलक बनाने की लालसा है ? या विजयदेवसूरि की सामाचारी में जीतव्यवहारत्व का स्थापन कर उसी के बल से पर्वतिथि के क्षय और वृद्धि के प्रसंग में श्रीसागरानन्दसूरि-सम्मत आचार में प्रामाणिकता प्रतिष्ठित करने की अभिलाषा है ? कुछ भी हो, पर इतना तो सुनिश्चित है कि इन उद्योगों से पर्वतिथियों के क्षय और वृद्धि के प्रसंग में श्रीसागरानन्दसूरिद्वारा समर्थनीय व्यवस्था की सप्रमाणता नहीं सिद्ध हो सकती, क्यों कि विजयदेवसूरि की सामाचारी में उक्त व्यवस्था का अन्तर्निवेश सिद्ध नहीं है । यदि यह कहा जाय कि पर्व तिथि के क्षय एवं वृद्धि के प्रसंग में जिस व्यवस्था का समर्थन श्रीसागरानन्द सूरि करना चाहते हैं वह श्री विजयदेवसूरि के समय से अथवा उसके भी पहले से अविच्छिन्न भाव से समाहत होती आ रही है, प्रस्तुत विवाद उठने के पूर्व कभी किसी ने उसके विरुद्ध कोई भी आवाज नहीं उठाई और उसमें कोई शास्त्रीय विरोध भी दृष्टिगत नहीं होता अतः उसे जीतव्यवहार का पद स्वयं प्राप्त है फलतः पहले के समान आज भी और आगे उसी का मान होना चाहिये । तो यह कथन न्याय और युक्ति से शून्य होने के कारण अमान्य है, क्यों कि श्रीविजयदेवसूरि के समय में या उसके पूर्व में उक्त व्यवस्था के प्रचलित रहने में कोई प्रमाण नहीं है, बल्कि क्षीण और वृद्ध पर्वतिथि की आराधना के उपपादनार्थ " क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरा ” इस आचार्य उमास्वाति के प्रघोष के उस समय भी प्रचलित रहने से यह अनुमान होता है कि तिथि के निर्णय के लिये लौकिक पञ्चाङ्ग उस समय भी मान्य था और उस समय आचार्यों ने पञ्चाङ्ग की मर्यादा की रक्षा को ध्यान में रखते हुये ही " क्षये पूर्वा" इत्यादि वचन की व्याख्या की होगी, इस प्रकार तदानीन्तन आचार श्रीसागरानन्दसूरि के द्वारा समर्थनीय आचार से भिन्न ही सिद्ध होता है तो फिर जब इस आचार का उस समय होना अयुक्त तथा अप्रामाणिक है तो उस समय के या तत्परवर्ती काल के आचार्यों ने इसका विरोध क्यों नहीं किया, यह प्रश्न ही नहीं उठता । इस लिये निष्पक्ष और सुविस्तृत विचार करने पर तो यही बात सिद्ध होती है कि पर्व- तिथि के क्षय और वृद्धि के प्रसंग में श्रीसागरानन्दसूरि ने जिस प्रक्रिया पर हठ पकड़ा है उसका उद्भव श्रीविजयदेवसूरि के बहुत बाद किसी ऐसे समय में हुआ प्रतीत होता है जब शास्त्रीय ज्ञान और सदाचार आदि का पर्याप्त ह्रास हो चुका रहा होगा, इस लिये उस प्रक्रिया के विरुद्ध मिलने वाले शास्त्रीय पाठों, शास्त्रानुसारी विचारों और उपपत्तियों के आधार पर उस अशास्त्रीय, अज्ञान - प्रवर्तित आचार-क्रम का खण्डन कर प्राचीन शास्त्रसम्मत आचार की प्रतिष्ठा करने के निमित्त श्रीरामचन्द्रसूरि ने जो प्रयत्न आरम्भ किया है वह बहुत ही स्तुत्य और पवित्र है । 66 पताका " के बाईसवें पृष्ठ में यह सिद्ध करने की चेष्टा की गई है कि पर्व तिथियों के क्षय और वृद्धि के प्रसंग में पूर्व की अपर्व तिथियों का क्षय और वृद्धि मानने की परम्परा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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