Book Title: Tithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Author(s): Jain Pravachan Pracharak Trust
Publisher: Jain Pravachan Pracharak Trust

Previous | Next

Page 507
________________ १०४ [ જૈન દષ્ટિએ તિથિદિન અને પર્વરોધન-સંગ્રહવિભાગ कालकाचार्य ने भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी के प्रधान-पर्वतिथित्व-मात्र का परिवर्तन किया है सामान्यपर्व-तिथित्व तो उसका अक्षुण्ण ही है। अतः भा० शु० पञ्चमी पर्वानन्तर-पर्व-तिथि नहीं हैयह मध्यस्थ-कथन अशान-मूलक है, इसलिये उस की वृद्धि और क्षय के प्रसंग में उसकी आराधना के अनुरोध से भा० शु० चतुर्थी का भी यथावसर उत्कर्षण और अनुकर्षण आवश्यक है । ___इस पर हमारा कथन यह है कि भा० शु० पञ्चमी को पर्वानन्तर-पर्वतिथित्व नहीं है-इस मध्यस्थोक्ति का आशय पताकाकार ने नहीं समझा, यदि मध्यस्थ के पूर्वापर ग्रन्थ को देखने का थोडा भी कष्ट किया गया होता तो मध्यस्थ की उक्त उक्ति का आशय समझ में आ जाने से असंगत दोषारोपण करने के अपयश से बचाव अवश्य हो जाता । मध्यस्थ के उक्त कथन का स्पष्ट आशय यह है कि भा० शु० पञ्चमी जिस पर्व तिथि के अनन्तर पडती है उसके समकक्ष पर्व-तिथि वह नहीं है, अर्थात् भा० शु० चतुर्थी सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की तिथि होने से समस्त पर्व तिथियों से बडी है अतः उसका औदयिकीत्व जिस दिन पञ्चाङ्ग में निर्दिष्ट हो उसकी आराधना उसी दिन होनी चाहिये न कि भा० शु० पञ्चमी जैसी शुभतिथि या साधारण-पर्व-तिथि मात्र के अनुरोध से उसकी मर्यादा में किसी प्रकार की शिथिलता करनी चाहिये। इस पर यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या तब भा० शु० पञ्चमी का क्षय आने पर उसकी आराधना का त्याग ही कर देना होगा, इसका सीधा उत्तर यह है कि भा० शु० पञ्चमी के क्षय के दिन भा० शु० चतुर्थी के कारण होने वाली सांवत्सरिक आराधना के साथ ही उसकी भी आराधना सम्पन्न हो जाती है। और यदि सह आराधना सम्भव न हो तो भा० शु० चतुर्थी की महामहिमा को देखते हुये यही कहना पडेगा कि उसके प्रखर प्रकाश में पञ्चमी की हतकान्तिता ही उचित है, पर तथ्य तो यह है कि सहआराधना में असम्भावना का कोई अवसर ही नहीं है। सह-आराधना में सन्तोषानुभव न करने वालों के लिये एक और सुझाव मध्यस्थ ने रखा है, वह भी शास्त्रवर्ण्य न होने से मान्य है । वह यह है कि पाक्षिक-चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की तिथियों की आराधनायें बिना किसी अपवाद के तिथि-नियत हैं और अन्य तिथियों की आराधनायें सापवाद तिथि-नियत हैं । अतः भा० शु० पञ्चमी का क्षय आने पर उसकी आराधना षष्ठी में भी कर ली जा सकती है। बीसवें पृष्ठ में “ हीरप्रश्न" का उद्धरण देकर उसके द्वारा पूर्णिमा और अमावास्या की वृद्धि होने पर वस्तुतः त्रयोदशी की ही वृद्धि माननी चाहिये, यह सिद्ध करने का प्रयास पताकाकार ने किया है। _ विद्वानों से हमारा निवेदन है कि वह विचार करें कि इस उद्धृत ग्रन्थांश से उक्त अर्थ का लाभ कैसे होता है ? यदि पताकाकार का तात्पर्य यह हो कि उक्त उद्धरण में पूर्णिमा का क्षय आने पर त्रयोदशी और चतुर्दशी में आराधना करने की बात कही गयी है, इस से प्रतीत होता है कि पूर्णिमा के क्षय के दिन पूर्णिमा को औदयिकी मानने पर चतुर्दशी अनौदयिकी हो जायगी अतः उसे त्रयोदशी के दिन औदयिकी मानना होगा, फलतः त्रयोदशी का क्षय प्राप्त होगा। तो जैसे पूर्णिमा के क्षय-प्रसंग में त्रयोदशी का क्षय मानना पडता है वैसे ही उसकी वृद्धि के प्रसंग में त्रयोदशी की ही वृद्धि भी मानना उचित होगा । पर यह तात्पर्यवर्णन निराधार है, क्यों कि त्रयोदशी और चतुर्दशी में आराधना की व्यवस्था करने का सकता है, जैसे पूर्णिमा में समाप्त होने के नाते पूर्णिमातप कहाजाने वाला षष्ठतप पूर्णिमा की १ देखिये मू० पु० पृ० सं० ४१ -Shah Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552