Book Title: Tithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Author(s): Jain Pravachan Pracharak Trust
Publisher: Jain Pravachan Pracharak Trust

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Page 495
________________ [ જૈન દૃષ્ટિએ તિથિદિન અને પનારાધન–સંગ્રહવિભાગ इस प्रकरण में ग्यारहवें पृष्ठ में पताकाकार ने कहा है कि " वृद्धौ कार्या तथोत्तरा " इस वचन से तिथिवृद्धि के प्रसंग में पूर्व तिथि के अनौदयिकीत्व और उत्तर तिथि के औदfaratra की व्यवस्था होती है । उनका यह कथन भी सदोष है, क्योंकि वृद्धा तिथि के दोनों दिन एक होने के कारण उसमें पूर्वा और उत्तरा शब्द का प्रयोग भेद-दृष्टि से नहीं हो सकता । हाँ, पूर्व और उत्तर दिन के सम्बन्ध की दृष्टि से प्रयोग हो सकता है, पर उस दशा में पूर्वा को अनौदयिकी और उत्तरा को औदयिकी नहीं कहा जा सकता कारण कि पूर्वा और उत्तरा शब्दों से एक ही वृद्धा तिथि का ग्रहण होता है । वृद्धा तिथि के सम्बन्ध में पूर्वा को अनौदयिकी और उत्तरा को औदयिकी कहने का तात्पर्य यह है कि वृद्धा तिथि पहले दिन अनौदयिकी और दूसरे दिन औदयिकी है, यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि यह बात टिप्पण से विरुद्ध होने के नाते " वृद्धौ कार्या" इस वचन से विवक्षित नहीं हो सकती । ૯૨ वृद्धा तिथि के दोनों दिन एक होने के कारण उसके सम्बन्ध में यह कहना कि 'पूर्वा तिथि अनौदयिकी होने से अपर्व तिथि है ' कथमपि उचित नहीं हो सकता, क्योंकि उत्तराऔदयिकी पर्व तिथि स्वरूपा वृद्धा तिथि ही पूर्वा है, तो फिर वह पर्व तिथि होने के साथ ही अपर्व तिथि भी कैसे हो सकती । वही तिथि दूसरे दिन पर्वतिथि और पहले दिन अपर्व तिथि है - यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पर्व तिथिरूपता अष्टमीत्व, चतुर्दशीत्व आदि धर्मो के अधीन है, तो वृद्धा तिथि में जब पहले दिन भी वे धर्म रहेंगे तो उस दिन वह अपर्व तिथि कैसे हो सकती है ? वृद्धा तिथि को पहले दिन भी पर्वतिथि रूप मानने पर पहले दिन भी उसकी आराधना अनिवार्य होगी - यह शङ्का ठीक नहीं है, कारण कि पहले दिन पर्वतिथिरूपता - होने पर भी " वृद्धौ कार्या" इस वचन से दूसरे ही दिन वृद्धा तिथि की आराधना के अनुष्ठान की व्यवस्था होने से पहले दिन उसकी आराधना अप्राप्त है । यह बात 'सेनप्रश्न ' के तृतीय उल्लास में उल्लिखित पण्डित पद्मानन्द गणि के प्रश्नोत्तर से स्पष्ट है । " अष्टमी की वृद्धि के प्रसङ्ग में उसके पूर्व की तिथि सप्तमी ही वस्तुतः वृद्धा होती हैपताकाकार का यह कथन भी युक्त नहीं है, क्योंकि पहले दिन वृद्धा पर्व तिथि की आराधना का परिहार करने के लिये उस दिन उसे अनौदयिकी मानने की कथंचित् आवश्यकता मान लेने पर भी अष्टमी से युक्त पहले दिन सप्तमी की कल्पना करने की कोई आवश्यकता नहीं होती । सृष्टि के समय कोई काल तिथिशून्य नहीं होता- इस नियम के रक्षणार्थ अष्टमी से युक्त पूर्व दिन में सप्तमी की कल्पना आवश्यक है । अन्यथा अष्टमी को दूसरे ही दिन औदfast मान लेने पर और सप्तमी को टिप्पणोक्त काल ही में छोड़ देने पर अष्टमी से युक्त पूर्व दिन के सूर्योदयकाल के तिथि हीन हो जाने से युक्त नियम का भंग हो जायगा यह तर्क भी ठीक नहीं है कारण कि पहले दिन अष्टमी के गणित - प्राप्त औदयिकीत्व के समान उक्त नियम को अस्वीकार कर देने में भी कोई बाधा नहीं है । क्योंकि एकत्र मर्यादा तोड कर व्यवहार करनेवालों को अन्यत्र भी मर्यादा तोड़ देने में लज्जा का कोई विशेष दबाव नहीं हो सकता । " वृद्धौ कार्या ” इस वचन को फलतः परिसंख्याविधि मान कर उस में सम्भावित दो का निरास सूचित करते हुये ' पताका' के ग्यारहवें पृष्ठ में पताकाकार ने जो यह कहा है। कि लौकिक प्रमाण से पूर्व शास्त्रप्रमाण की प्रवृत्ति का नियम होने से टिप्पण से पूर्व ही " वृद्धौ कार्या" इस वचन की प्रवृत्ति हो जाने के कारण वृद्धा तिथि को पहले दिन औदयिकीत्व प्राप्त ही नहीं है, अतः प्राप्तबाध रूप दोष नहीं प्रसक्त होगा । वह ठीक नहीं है, क्योंकि टिप्पण की १ देखिये मू० पु० पृ० सं० १४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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