Book Title: Tithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Author(s): Jain Pravachan Pracharak Trust
Publisher: Jain Pravachan Pracharak Trust

Previous | Next

Page 497
________________ [ જૈન દષ્ટિએ તિથિદિન અને પર્વરાધનસંગ્રહવિભાગ ___पताका' के इस बारहवें पृष्ठ में ही पताकाकार ने मध्यस्थ पर यह आक्षेप किया है कि "क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" इस वाक्य के पूर्व भाग को सप्तमी में अष्टमी वा अष्टमीत्व का विधायक तथा उत्तर भाग को दूसरे दिन वृद्धा अष्टमी के औदयिकीत्व का नियामक मान कर जो वैरूप्य स्वीकार किया है वह निष्प्राण और निष्फल है। इस आक्षेप के सम्बन्ध में हमारा यह निवेदन है कि पताकाकार ने स्वयं भी उस वचन के पूर्वार्ध को क्षीण अष्टमी में औदयिकीत्व का वा अष्टमी के क्षय के दिन सप्तमी के स्थान में क्षीण अष्टमी के सूर्योदयावधिक अंशों का विधायक और उत्तरार्ध को ‘पताका' के तेरहवें पृष्ठकी ग्यारहवीं पंक्ति में पर्वतिथित्व का नियामक मान कर वैसा ही वैरूप्य किया है, अतः उनको मध्यस्थ पर उक्त आक्षेप करने का कोई अधिकार न होने के कारण “ मुखमस्तीति वक्तव्यं दशहस्ता हरितकी" मुख से हरीतकी की १० हाथ लम्बाई बता देने में क्या रोक ? यह श्लोक जो उन्होंने उदात मध्यस्थ के सम्बन्ध में कहा है उसे वस्तुतः उन्हीं के सम्बन्ध में पढना उचित है। ____ इसी पृष्ठ में “वृद्धा तिथि पहले दिन औदयिकी है वा दूसरे दिन” इस संशय को मध्यस्थ-कथित मान कर उसका पताकाकारने इस प्रकार खण्डन किया है कि वृद्धा तिथि . तो टिप्पणानुसार दोनों दिन औदयिकी है अतः उसमें उक्त संदेह का कथन अनुचित है। और इसी लिये उसकी पाक्षिक प्राप्ति न होने के कारण उस वचन के उत्तरार्ध को औदयिकीत्व का नियामक मानना भी असंगत है । इस सम्बन्ध में हमारा कथन यह है कि पताकाकार के उक्त दोषोद्भावन का आधार उनके स्वभाव विशेष को छोडकर दूसरा कुछ नहीं है, कारण कि मध्यस्थ ने सूर्योदय-काल में अस्तित्वरूप औदयिकी को सन्दिग्ध नहीं कहा है किन्तु पूर्व दिन के औदयिकीत्व और उत्तर दिन के औदयिकीत्व की आराधनोपयोगिता में सन्देह बताया है, और उसके होने में कोई बाधा नहीं है क्योंकि वृद्धा तिथि के किस औदयिकीत्व को आराधना में उपयुक्त माना जाय यह प्रकारान्तर से निश्चित नहीं है । इसी प्रकार साधारण औद. यिकीत्व की पाक्षिक प्राप्ति और उसका नियमन भी मध्यस्थ को मान्य नहीं हैं किन्तु आराधनोपयुक्त औयिकीत्व की पाक्षिक प्राप्ति और उसी का नियमन उन्हें इष्ट है। और यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है। नियम का विधान होता है न कि नियमविधि का इस अभिप्राय से "नियमविधिविधायक" शब्द के प्रयोग पर जो आक्षेप पताकाकार ने किया है, वह भी निराधार है, क्योंकि 'विधि' शब्द को कर्मप्रत्ययान्त मान कर “ नियमरूपी विधेय का विधान करनेवाला” इस अर्थ के तात्पर्य से उक्त शब्द के प्रयोग में कोई बाधक नहीं है। तेरहवें पृष्ठ में पताकाकार ने “वृद्धौ कार्या" इस वचन की मध्यस्थोक्त औदयिकीत्वनियामकता का खण्डन कर उसे जो पर्वतिथित्व का नियामक माना है। वह ठीक नहीं है, क्योंकि बारहवें पृष्ठ की पाँचवीं पंक्ति में उस वचन को उन्हों ने औदयिकीत्व का नियामक मान लिया है और अब यहां तेरहवें पृष्ठ में उसका खण्डन करते हैं अतः उनके पूर्वापर वचनों में विरोध पडता है। इसी पृष्ठ में ग्यारहवीं पंक्ति के वाक्य में निकटवर्ती 'क्षय' शब्द की उपेक्षा कर दूरवर्ती वृद्धि शब्द की समान-लिंगता को मुख्यता देकर ‘दृष्टा' शब्द के प्रयोग करने का रहस्य नहीं ज्ञात होता । 'पञ्चाङ्गे' से लेकर 'दृष्टायाम्' यहां तक के वाक्य भाग का अन्वयी भी अन्वेषण की अपेक्षा करता है, उतने वाक्य-भाग के अर्थ का “पर्वतिथिरे कैव भवति ” इस शब्द के अर्थ के साथ अथवा उसके सहित “ इति मध्यस्थेनोक्तम्" इस शब्द के अर्थ के साथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552