Book Title: Tithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Author(s): Jain Pravachan Pracharak Trust
Publisher: Jain Pravachan Pracharak Trust

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Page 500
________________ ८७ ૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અર્ધતિથિભાસ્કર ] विषय के अपहरण से शान-स्वरूप का अपहरण नहीं होता किन्तु उसकी यथार्थता का ही अपहरण होता है और क्षय वा वृद्धि के ज्ञान की यथार्थता उक्त वचन का उपजीव्य है नहीं, अतः उस वचन से क्षय और वृद्धि का अपहरण होने पर उनके ज्ञान की यथार्थता का अपहरण होने पर भी ज्ञान-स्वरूप का अपहरण न होने से उपजीव्य-विरोध की आपत्ति नहीं हो सकती, इस तर्क से भी उक्त वचन पर्वतिथि के क्षय और वृद्धि के अभाव का साक्षी नहीं बनाया जा सकता, कारण कि इस वचन को पर्व तिथि के क्षय और वृद्धि के अभाव का साक्षी मानने पर पर्वतिथि के क्षय और वृद्धि को बतानेवाले टिप्पण को अप्रमाण मानना पडेगा, और टिप्पण को अप्रमाण तभी माना जा सकेगा जब टिप्पणकार के गणित को अशुद्ध माना जाय। फिर यदि टिप्पणकार का गणित अशुद्ध हुआ तो यह निश्चय कैसे होगा कि अन्य तिथियों के प्रवेश आदि के सम्बन्ध में उसका गणित अशुद्ध नहीं है अथवा जिस दिन उसने पर्वतिथि की क्षीण-सत्ता वा वृद्ध सत्ता बतायी है उस दिन उसकी वैसी भी सत्ता है ही। फलतः समूचे लौकिक टिप्पण पर अविश्वास उत्पन्न हो जाने से तथा तिथि निर्णय का अन्य साधन न होने से पूरे जैनसंघ को उचित समय में पर्व तिथि की आराधना न कर सकने के कारण पर्व तिथि की विराधना के दोष का भाजन होना पडेगा। हाँ, पताकाकार को पाश्चात्य सभ्यता से अभिभूत युवक जैनों की ओर से इस बात के लिये अभिनन्दन अवश्य प्राप्त होगा कि उन्होंने प्रचलित टिप्पण पर अविश्वास की स्थिति पैदा कर उन युवकों को तिथि की आराधना में प्रवृत्त न होने के लिये तिथि निर्णय की अशक्यता का एक बहाना बनाने का अवसर दे दिया। "क्षये पूर्वा" इत्यादि शास्त्रीय वचन के अनुरोध से पर्वतिथियों के क्षय और वृद्धि मात्र में टिप्पण की अप्रमाणता होगी, अन्य अंशों में तो उसकी प्रमाणता अक्षुण्ण हो रहेगी क्योंकि अन्य अंशों में अप्रमाणत्व की कल्पना का "क्षये पूर्वा” इस वचन के समान कोई आधार नहीं है, अतः समूचे टिप्पण पर अविश्वास का प्रसंग न होने के कारण उक्त दोष को अवसर नहीं मिल सकता-यह समाधान भी संगत नहीं है, क्योंकि कुछ अंश में टिप्पण की अप्रमाणता मान लेने पर उसी दृष्टान्त से अन्य सभी अंशों में उसी प्रकार अप्रमाणता के अनुमान को अवसर मिल जायगा जिस प्रकार आगम के दृष्टार्थक भाग में प्रमाणता सिद्ध होने पर उसी दृष्टान्त से आगम के अदृष्टार्थक भाग में प्रमाणता के अनुमान को अवसर मिलता है। ____ इसके अतिरिक्त सर्वोपरि बात तो यह है कि तिथियों की प्रवृत्ति, स्थिति और निवृत्ति का काल गणित-ज्योतिष का असाधारण विषय है अतः उसमें शास्त्रान्तर के द्वारा विपरीतता का सहन नहीं किया जा सकता। पताकाकार से इस प्रश्न के उत्तर की भी अपेक्षा है कि टिप्पण में क्षीणतया निर्दिष्ट पर्वतिथि की आराधना की उपपत्ति के लिये “क्षये पूर्वा तिथिः कार्या” इस वचन के अनुसार उस तिथि के औदयिकीत्व की कल्पना आवश्यक मान लेने पर भी उसके पूर्व की साधारण तिथि के टिप्पणोक्त औदयिकीत्व के त्याग की क्या आवश्यकता है ? यदि वह इसके उत्तर में कहें कि दूसरी कोई आवश्यकता नहीं है, वह बात तो केवल इस लिये मानी जाती है कि एक दिन एक ही तिथि औदयिकी होती है। अतः पर्वतिथि के क्षय के दिन उक्त वचन के आधार पर उसे जब औदयिकी माना जायगा तो उसके पूर्व की साधारण तिथि को उस दिन अनौदयिकी होना ही पडेगा, तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि सप्तमी युक्त सूर्योदय काल में अष्टमी के सम्बन्ध की कल्पना करने का पर्यवसान “एक दिन एक ही तिथि औदयिकी होती है" इस नियम के अभाव-बोधन में हो सकता है। इस पर यह शंका कि उक्त नियम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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