Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 15
________________ प्रकाशकीय जदिवसह कृत तिलोयपण्णत्ती प्राकृत भाषा में जैन करणानुयोग का एक प्राचीन ग्रंथ है। प्रसंगवश इसमें जैन सिद्धान्त, इतिहास व पुराण सम्बन्धी भी बहुत सी सामग्री उपलब्ध होती है । मुख्यतः इसमें तीन लोक का वर्णन है । जैन धर्म और जैन बाङमय के इतिहास का पूरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए लोक विवरण सम्बन्धी ग्रंथ भी उतने ही मनत्वपूर्ण हैं जितने कोई भी अन्य ग्रन्थ हो सकते हैं । "तिलोयपण्णत्ती' इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसका प्रथम प्रकाशन जीवराज ग्रन्थमाला, सोलापूर से डा. हीरालाल जैन व डा. ए. एन. उपाध्ये के सम्पादकत्व में पं० बालचन्दजी शास्त्रीकृत हिन्दी अनुवाद के साथ हुआ था जो अब अप्राप्य है । गणित सम्बन्धी जटिलता के कारण इस संस्करण में कुछ सन्दर्भ अस्पष्ट रह गये थे। प्रथमाधिकार के स्वाध्याय के दौरान ही टीकाकर्ती पूज्य माताजी विशुद्धमतीजी को इस अस्पष्टता की प्रतीति हुई जिसे उन्होंने स्व. पं. रतनचन्दजी मुख्तार, सहारनपुर वालों से समझा । अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी पूज्य माताजी इससे पूर्व 'त्रिलोकसार' व 'सिद्धांतसार दीपक' जैसे लोक विधररण सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की हिन्दी टीका कर चुकी थी। उदयपुर में, उन्होंने इस प्राचीन ग्रंथ की अन्य हस्तलिखित प्रतियों को आधार बनाकर पाठ संशोधन किया और विषय को चित्रों व संदृष्टियों के माध्यम से सुबोध बना कर भाषा टीका की। संयोग से, श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा के अध्यक्ष श्री निर्मलकुमारजी सेठी पूज्य माताजी के दर्शनार्थ उदयपुर पधारे । ग्रन्थ के प्रकाशन की चर्चा चली तो माननीय सेठीजी ने इसे सभा से प्रकाशित करना सहर्ष स्वीकार कर लिया। महासभा का प्रकाशन विभाग अभी दो-तीन वर्षों से ही सक्रिय हुआ है और 'तिलोयपण्णत्ती' जैसे ऐतिहासिक महत्त्व के प्राचीन ग्रन्थ का प्रकाशन कर अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करता है। महासभा सच्चे देव शास्त्र गुरु में अटूट निष्ठा रखने वाले दिगम्बर जैन समाज की लगभग ६० वर्षों से सक्रिय रहने वाली एक प्राचीन संस्था है जिसके कार्यकलापों की जानकारी इसके मुखपत्र "जैन गजट" के माध्यम से पाठकों को मिलती रहती है। श्री सेठीजी ने १९८१ में महासभा की अध्यक्षता ग्रहण की थी तबसे आपके मार्गदर्शन में यह संस्था निरन्तर अपने उद्देश्यों की पूर्ति में पूर्णतः प्रयत्नशील है। श्री सेठीजी ने न केवल ग्रन्थ के प्रकाशन की स्वीकृति ही दी है अपितु पारमार्थिक कार्यों के लिए निर्मित अपने 'सेठी ट्रस्ट' से इसके प्रकाशन के लिए उदारतापूर्वक अर्थ सहयोग भी प्रदान किया है, एतदर्थ महासभा का प्रकाशन विभाग आपका अतिशय आभार मानता है और यही कामना करता

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