Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 13
________________ बिना ही अनुभव कर लेगी क्योंकि वह भुक्तभोगी है और अन्य भव्यजन लिख देने पर भी उसका अनुभव नहीं कर सकेंगे क्योंकि न हि वन्ध्या विजानाति पर-प्रसव-वेदनाम् । __ कार्यक्षेत्र --बीर प्रसविनी भीलों की नगरी उदयपुर अपने नगर-उपनगरों में स्थित लगभग पन्द्रह-सोलह जिनालयों से एवं देव-शास्त्र-गुरु भक्त और धर्म-निष्ठ समाज से गौरवान्वित है । नगर के मध्य मण्डी की नाल में स्थित १००८ श्री पाश्र्वनाथ दि० अन खण्डेलवाल मन्दिर इस ग्रन्थ का रचना क्षेत्र रहा है । यह स्थान सभी साधन सुविधाओं से युक्त है । यहीं बैठकर ग्रन्थ के तीन महाधिकार पूर्ण होकर प्रथम खण्ड के रूप में प्रकाशित हो रहे हैं और चतुर्थ महाधिकार का कार्य पूर्ण हो चुका है। सम्बल-इस भव्य जिनालय में स्थित भूगर्भ प्राप्त, श्याम वर्ण, खड्गासन, लगभग ३' उत्तुग, अतिशयवान् प्रति मनोज्ञ १००८ श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनेन्द्र की चरण रज एवं हृदयस्थित आपकी अनुपम भक्ति, आगमनिष्ठा और परम पूज्य परम श्रद्धेय साधु परमेष्ठियों का शुभाशीर्वाद रूप वरद हस्त ही मेरा सबल सम्बल रहा है। क्योंकि जैसे लकड़ी के आधार बिना अंधा व्यक्ति चल नहीं सकता बैसे ही देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति बिना मैं यह महान कार्य नहीं कर सकती थी। ऐसे तारण-तरण देव, शास्त्र, गुरु को मेरा कोटिश: त्रिकाल नमोऽस्तु ! नमोऽस्तु !! नमोऽस्तु ! ! ! प्राधार-प्रो० आदिनाथ उपाध्याय एवं प्रो० हीरालालजी द्वारा सम्पादित, पं० बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री द्वारा हिन्दी भाषानुवादित एवं जीवराज ग्रन्थमाला से प्रकाशित तिलोयपत्ती और जनविद्री स्थित अन मठ को कन्नड प्रति से की हुई देवनागरी लिपि ही इस ग्रन्थ की आधारशिला है। कार्य के प्रारम्भ में तो मूल विद्री की कन्नड प्रांत के पाठभेदों का ही आधार था किन्तु यह प्रति प्रधूरी ही प्राप्त हुई। यदि मुद्रित प्रति न होती तो मैं अल्पमति इसकी हिन्दी टीका कर ही नहीं सकती थी और यदि कन्नड प्रतियाँ प्राप्त न होती तो पाठों की शुद्धता, विषयों की संबद्धता तथा ग्रंथ की प्रामाणिकता प्रादि अनेक विशेषतायें प्रन्थ को प्राप्त नहीं हो सकती थीं। सहयोग-नीच के पत्थर सदृश सर्व प्रथम सहयोग उदयपुर को उन भोली भाली माता-बहिनों का है जो तीन वर्ष के दीर्घकाल से संयम और नानाराधन के कारणभूत अाहारादि दान प्रवृत्ति में यात्सल्य पूर्वक तत्पर रहीं हैं। श्री ज्ञानयोगो भट्टारक चारुकीतिजी एवं पं० श्री देवकुमार शास्त्री, मूलविद्री तथा श्री धर्मपोगी भट्टारक चारकोसिजो एवं पं० श्री देवकुमारजी शास्त्री, जैनधित्री का प्रमुख सहयोग प्राप्त हुप्रा । प्राचीन कन्नड की देवनागरी लिपि देकर इस ग्रन्थ को शुद्ध बनाने का पूर्ण श्रेय आपको ही है ।

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