Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 11
________________ १२ नं० ८५, ५६, ६५, १६५, २०२ प्रौर २८८ की संदृष्टियों का भाव समझ में नहीं आया, फिर भी कार्य प्रगति पर रहा और २०-३-८२ को तीसरा अधिकार भी पूर्ण हो गया किन्तु इसमें भी गा. २५, २६, २७ प्रादि के अर्थ पूर्ण रूपेण बुद्धिगत नहीं हुए। इतना होते हुए भी कार्य चाल रहा क्योंकि प्रारम्भ में ही यह निर्णय ले लिया था कि पर्व सम्पादक द्वय एवं हिन्दी कर्ता विद्वानों के अपूर्व श्रम के फल को सुरक्षित रखने के लिए ग्रन्थ का मात्र गरिणत भाग स्पष्ट करना है । अन्य किन्हीं विषयों को स्पर्श नहीं करना। इसी भावना के साथ चतुर्थाधिकार प्रारम्भ किया जिसमें गा० ५७ और ६४ तो प्रश्न चिह्न युक्त थी ही किन्तु गणित की दृष्टि से गा० ६१ के बाद निश्चित ही एक गाथा छूटी हुई ज्ञात हुई। इसी बीच हस्तलिखित प्रतियां एकत्रित करने की बहुत चेष्टा की किन्तु कहीं से भी सफलता प्राप्त नहीं हुई, तब यही भाव उत्पन्न हुआ कि इस प्रकार अशुद्ध कृति लिखने से कोई लाभ नहीं । अन्ततोगत्वा अनिश्चित समय के लिए टीका का कार्य बन्द कर दिया। प्रगति का पुरुषार्थ-उत्तर भारत के प्रायः सभी प्रमुख शास्त्र भण्डारों से हस्तलिखित प्रतियों की याचना की। जिनमें मात्र श्री महाबीरप्रसाद विश्वम्बरदासजी सर्राफ चांदनी चौक दिल्ली, श्रीमान् कस्तूरचन्द्रजी काशलीवाल जयपुर पौर श्री रतनलालजी सा० व्यवस्थापक श्री १००८ शान्तिनाथ दि० जैन खंडेलवाल पंचायती दीवान मन्दिर कामा ( भरतपुर ) के सौजन्य से। १+२+ १ = ) चार प्रतियां प्राप्त हुईं। शपथ स्वीकार कर लेने के बाद भी जब अन्य कहीं से सफलता नहीं मिली तम उज्जैन और ब्यावर की प्रतियों से केवल चतुर्थाधिकार की फोटो कॉपी करवाई गई। इस प्रकार कुछ प्रतियां प्राप्त अवश्य हुई किन्तु बे सब मुद्रित प्रति के सदृश एक ही परम्परा की लिखी हुई थीं। यहां तक कि पूर्व सम्पादकों को प्राप्त हुई बम्बई की प्रति ही उज्जैन की प्रति है और इसी को प्रतिलिपि कामा की प्रति है, मात्र प्रतिलिपि के लेखनकाल में अन्तर है। इस कारण कुछ पाठ भेदों के सिवा गाथाए आदि प्राप्त न होने से गरिणतादि की मुत्थियां ज्यों की त्यों उलझी ही रहीं । उस समय परम पूज्य आचार्यवयं १०८ विमलसागरजी म. और प० पूज्य १०८ श्री विद्यानन्दजी महाराज दक्षिण प्रान्त में ही विराज रहे थे। इन युगल गुरुराजों को पत्र लिखे कि मूलबिद्री के शास्त्र भण्डार से कन्नड़ की प्रति प्राप्त कराने की कृपा कीजिए । महाराज श्री ने तुरन्त श्री भट्टारकजी को पत्र लिखवा दिया और उदयपुर से भी श्रीमान् पं० प्यारेलालजी कोठड़िया ने पत्र दिया। जिसका उत्तर पं. देवकुमारजी शास्त्री (वीरवाणी भवन, मूल बिद्री) ने दिनांक २१-४-१९८२ को दिया कि यहां तिलोयपत्ती की दो ताड़पत्रीय प्राचीन प्रतियां मौजूद हैं। उनमें से एक प्रति मुलमात्र है और पर्ण है । दूसरी प्रति में टीका भी है लेकिन उसमें अन्तिम भाग नहीं है पर संख्या की

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