Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 10
________________ आदि की प्रवृत्ति होती है उसे देखते हुए तो शास्त्र नहीं लिखना ही सर्वोत्तम है । यथार्थ में इस प्रक्रिया से साधु को बहुत दोष लगता है यह बात ध्यान में प्राते ही आपने तुरन्त आश्वासन दिया कि आप टीका का कार्य प्रारम्भ कीजिए लेखन कार्य के सिवा पापको अन्य किसी प्रकार की चिन्ता करने का अवसर प्राप्त नहीं होगा। इसी बीच परम पूज्य प्रातः स्मरणीय १०८ श्री सन्मतिसागर म० जी ने यम सल्लेखना धारण कर लो। क्रमश : आहार का त्याग करते हुए मात्र जल पर आ चुके थे। शरीर की स्थिति अत्यन्त कमजोर हो चुकी थी । मेरे मन में अनायास ही भाव जागृत हुए कि यदि तिलोयपणती की टीका करनी ही है तो पूज्य महाराज श्री में प्राशीर्वाद लेकर आपके जीवन काल में ही कार्य प्रारम्भ कर देना चाहिए । किन्तु दूसरी पोर पागम की आज्ञा सामने थी कि "यदि संघ में कोई भी साधु समाधिस्थ हो तो सिद्धान्त ग्रन्थों का पठन-पाठन एवं लेखनादि कार्य नहीं करना चाहिए"। इस प्रकार के द्वन्द्व में झूलता हुआ मेरा मन महाराज श्री से आशीर्वाद लेने वाले लोभ का संवरण नहीं कर सका और सं० २०३८ मार्गशीर्ष कृष्णा ११ रविवार को हस्त नक्षत्र के उदित रहते ग्रंथ प्रारम्भ करने का निश्चय किया तथा प्रातःकाल जाकर महाराज श्री से प्राशीर्वाद की याचना की। उस समय महाराज श्री का शरीर बहुत कमजोर हो चुका था । जीवन केवल तीन दिन का अवशेष था फिर भी धन्य है अापका साहस और धैर्य । तुरन्त उठ कर बैठ गये, उस समय मुग्वारविन्द से प्रफुल्लता टपक रही थी, हृदय वात्सल्य रस से उछल रहा था, वागी से अमृत झर रहा था, उस अनुपम पुण्य वेला में श्रापने क्या क्या दिया और मैंने क्या लिया यह लिखा नहीं जा सकता किन्तु इतना अवश्य है कि यदि वह समय मैं चूक जाती तो इतने उदारता पूर्ण आशीर्वाद से जीवनपर्यन्त वञ्चित रह जाती तब शायद यह ग्रन्थ हो भी नहीं पाता। पश्चात् विद्यागुरु १०८ श्री अजितसागर म० जी से आशीर्वाद लेकर हूमड़ों के नोहरे में भगवान् जिनेन्द्रदेव के समीप बैठकर ग्रंथ का शुभारम्भ किया । उस समय धन लग्न का उदय था । लाभ भवन का स्वामी शुक्र लग्न में और लग्नेश गुरु तथा कार्येश बुध लाभ भवन में बैठकर विद्या भवन को पूर्ण रूपेण देख रहे थे । गुरु पराक्रम और सप्तम भवन को पूर्ण देख रहा था। कन्या राशिस्थ शनि और चन्द्र दशम में, मंगल नवम में और सूर्य प्रष्टम भवन में स्थित थे। इस प्रकार दि० २२-११-१९८१ को ग्रन्थ प्रारम्भ किया और २५-११-८२ बुधवार को णमोकार मन्त्र का उच्चारण करते हए परमोपकारी महाराज श्री स्वर्ग पधार गये। तुषारपात-दिनांक १-१-८२ को प्रथमाधिकार पूर्ण हो चुका था किन्तु इसकी गाथा १३८, १४१-४२, २०८ प्रौर २१७ के विषयों का समुचित संदर्भ नहीं बैठा गा० २३४ का प्रारम्भ तो 'त' पद से हुआ था । अर्थात् इसको ३५ से गुणा करके...... ! किस संख्या को ३५ से गुणित करना है यह बात गा० में स्पष्ट नहीं थी। दि० १६.२.१२ को दुसरा अधिकार पूर्ण हो गया किन्तु इसमें भी गाथा

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