Book Title: Tattvasara
Author(s): Hiralal Siddhantshastri
Publisher: Satshrut Seva Sadhna Kendra

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Page 25
________________ तत्त्वसार कुमुदविशदकीर्तेहेमकीर्तेः सुपट्टे विजितमदनमायः शीलसम्पत्सहायः। मुनिवरगणवन्द्यो विश्वलोकैरनिन्द्यो जयति कमलकोत्तिः जैनसिद्धान्तवादी // 35 // भावार्थ-काष्ठा संघकी गुरुपरम्परामें अनन्तकीर्ति हुए। उनके पट्टपर अत्यन्त प्रतिभासम्पन्न, अध्यात्मनिष्ठ श्रीक्षेमकीर्ति आसीन हुए। उनके पट्ट पर, राग, द्वेष और मदरूप अन्धकार को नाश करनेके लिए सूर्यके समान श्री हेमकीर्ति विराजमान हुए और उनके पट्टपर मदनकी मायाको जीतने वाले, शोलरूप सम्पत्तिके धारक, उत्तम मुनिगणसे वन्द्य, लोकमें प्रशंसाको प्राप्त एवं जैनसिद्धान्तवादी श्रीकमलकीत्ति बैठे। संस्कृत टीकाकी प्रशस्तिके अन्तमें कमलकोत्तिने अपने लिए जिन विशेषणोंको दिया है, उसकी पुष्टि गुर्वावलीके उक्त 35 वें पद्यसे भी होती है। इतना स्पष्ट ज्ञात हो जाने पर भी न तो गुर्वावलीमें उनके समयका कोई उल्लेख है और न टीकाकी अन्तिम प्रशस्तिमें ही स्वयं टीकाकारने अपने समय और स्थान आदिका कोई उल्लेख किया है। अन्य सूत्रोंसे केवल इतना ही ज्ञात होता है कि उक्त गुर्वावलीमें कमलकीर्तिके पश्चात् कुमारसेन, हेमचन्द्र, पद्मनन्दि और यशःकीर्ति क्रमशः पट्ट पर बैठे हैं। यतः भ० पद्मनन्दि श्रावकाचार सारोद्धारकी प्रति वि० सं० 1580 की लिखी प्रति प्राप्त हुई है, जिसका उल्लेख हमने श्रावकाचार संग्रहकी प्रस्तावनामें किया है। और इसके पूर्व उसका रचा जाना सिद्ध है। ___भट्टारक सम्प्रदायके लेखाङ्क 239 के अनुसार इन्होंने भ० आदिनाथकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा वि० सं० 1450 में करायी है। वि० सं० 1465 और वि० सं० 1483 में उत्कीर्ण किये गये बिजौलियाके शिलालेखोंमें इनकी प्रशंसा की गयी है, अतः पद्मनन्दिका उक्त समय निश्चित है / यदि कमलकीत्तिके पश्चात् उनके पट्टपर बैठनेवाले कुमारसेन और हेमचन्द्रका समय 20 + 20 वर्ष भी माना जाये तो कमलकीतिका समय वि० सं० 1410 के आस-पास माना जा सकता है। श्री कमलकीत्तिने अपनी टीकामें पं० वामदेव-रचित त्रैलोक्य दीपक नामक ग्रन्थका उल्लेख कर उसके एक श्लोकको उद्धृत किया है और त्रैलोक्य दीपककी एक प्रति-जो योगिनीपुर (दिल्ली) में लिखी गई है-उसमें लेखन-काल वि० सं० 1426 दिया हुआ है।, अतः इनका समय इससे पूर्व और पं० वामदेवसे पीछेका होना निश्चित है / इस प्रकार ऊपर अनुमानके आधार पर जिस समयको कल्पनाकी गई है, यह ठीक प्रतीत होता है। कमलकीत्तिकी शिष्य-परम्पराका उल्लेख वि० सं० 1525 में उत्कीर्ण ग्वालियरके मत्तिलेखमें पाया जाता है। उसके अनुसार कमलकोत्ति के पट्टपरं सोनागिरमें भ० शुभचन्द्र प्रतिष्ठित हुए। इसका उल्लेख रयधू कविने अपने हरिवंशपुराणकी आदि वा अन्तकी प्रशस्तिमें भी किया है। यथा कमलकित्ति उत्तमखम धारउ, भव्वइ भव-अम्भोणिहि-तारउ // तस्य पट्ट कणयद्दि परिट्ठिउ, सिरि सुहचंदु सु तव उक्कंठिउ // ___ (हरि वं० आदि-प्रशस्ति) जिण सुत्त-अत्थअलहएण, सिरिकमलकित्ति-पयसेववरण / सिरिकंजकित्ति-पढें बरेसु तच्चत्थ-सत्त्थ-भासण-दिणेसु / उइण-मिच्छत्त-तमोहणासु सुहचंदुभडारउ सुजसवासु // (हरि वं० अन्तिम प्रशस्ति)

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