Book Title: Tattvasara
Author(s): Hiralal Siddhantshastri
Publisher: Satshrut Seva Sadhna Kendra

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Page 140
________________ तत्त्वसार 107 टीका-'परमाणमित्तरायं जाम ण छंडेइ' इत्यादि, पवखण्डनारूपेण मुनिना वृत्तिकारण व्याख्यानं क्रियते--यावत्कालं रागं वीतरागसर्वज्ञतत्त्वविलक्षणमिथ्यात्वोदयजनितं रागपरिणामं न त्यजति न मुञ्चति / कियन्तं रागम् ? परमाणुमात्रमपि, अणुशब्देन सूक्ष्मत्वमुच्यते, मात्रशब्देन प्रमाणं च, अणुरेव मात्रा यस्य स अणुमात्रः, परमश्चासावणुमात्ररागश्च परमाणुमानरागस्तं परमाणुमात्ररागम् / कोऽसौ न मुञ्चति ? 'जोई' योगी ध्यानी ध्याता। क्व ? 'समणम्मि' स्वमनसि स्वचित्ते / सो कम्मेण ण मुच्चइ, स एव योगी पूर्वोपाजितकर्मभिनं मुच्यते न त्यज्यते / स कथम्भूतः सन् ? 'परमवियाणओ समणो' स श्रमणो यतिः परमार्थविज्ञायकः, अर्थशब्देनार्थाः पदार्थाः कथ्यन्ते, परोत्कृष्टा मा लक्ष्मीर्यस्यासौ परमः, परमश्चासावर्थश्च परमार्थः / अथवा परमार्थो वस्तुस्वरूपं तं परमार्थ विशेषेण जानातीति परमार्थविज्ञायकोऽपि रागी घेत्तदा मोक्षं मात्र शब्दकरि परमाणु अणु ही हैं प्रमाण जाका, सो अणुमात्र जाननां / परम इसो जो अणुमात्र राग सो परमाणु मात्र राग जाननां / कौन नांही छांडे है ? योगी ध्यानी ध्याता / कुठे ? स्व कहिए अपने मनविर्षे / सो योगो पूर्वोपार्जितकर्मनिकरि नाही छूटिए है / कैसा भया संता ? सो श्रमण जो यति मुनि परमार्थका जाननेवाला / अर्थ शब्दकरि अर्थ जे पदार्थ कहिए है / परा उत्कृष्टा मा लक्ष्मी है जाकें, सो परम कहिए। परम ऐसा जो अर्थ सो परमार्थ कहिए। अथवा परमार्थ वस्तुस्वरूप, परमार्थ विशेषपणाकरि जानै सो परमार्थ-विज्ञायक हू जाननेवाला हू // 53 // : टीकार्थ-'परमाणुमित्तरायं जाम ण छंडेइ' इत्यादि गाथाके अर्थका टीकाकार मुनि व्याख्यान करते हैं-जितने कालतक वीतराग सर्वज्ञ-प्रणीत तत्त्वसे विपरीत मिथ्यात्वके उदयजनित राग-परिणामको नहीं त्यागता है, नहीं छोड़ता है। . . प्रश्न-कितने रागको नहीं छोड़ता है ? उत्तर-परमाणुमात्र भी रागको नहीं छोड़ता है। अणुशब्दसे सूक्ष्मता कही गई है और मात्र शब्दसे प्रमाण / अणु ही है मात्रा जिसकी वह अणुमात्र कहलाता है। ऐसे परम अर्थात् अत्यन्त सूक्ष्म अणुप्रमाण भी रागको जो नहीं छोड़ता है। प्रश्न-कौन नहीं छोड़ता है ? उत्तर-'जोई' अर्थात् ध्यान करनेवाला योगी। प्रश्न-कहां नहीं छोड़ता है ? उत्तर-अपने मनमें नहीं छोड़ता है ? 'सो कम्मेण ण मुच्चइ' वह योगी पूर्वोपार्जित कर्मोंसे नहीं छूटता है, नहीं मुक्त होता है। प्रश्न-कैसा होता हुआ भी योगी कर्मोंसे नहीं छूटता है ? उत्तर-'परमट्ठवियाणओ समणो' अर्थात् जो परमार्थका विज्ञायक श्रमण योगी है / परमार्थ यह शब्द परम और अर्थ इन दो शब्दोंके योगसे बना है / अर्थ शब्दसे जीवादि पदार्थ कहे गये हैं। 'परा' शब्द उत्कृष्टका वाचक है और 'मा' शब्द लक्ष्मीका वाचक है। ऐसी उत्कृष्ट लक्ष्मी जिसके पाई जावे उसे परम कहते हैं / ऐसा परम जो अर्थ है वह परमार्थ कहलाता है। अथवा परमार्थ नाम वस्तु-स्वरूपका है। उस परमार्थको जो विशेषरूपसे जानता है, उसे

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