Book Title: Tattvasara
Author(s): Hiralal Siddhantshastri
Publisher: Satshrut Seva Sadhna Kendra

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Page 163
________________ 130 तत्त्वसार जायते ? भूतपूर्वो न, एवंविधोऽभूतपूर्वो जातः समुत्पन्नो जीव इति / पुनश्च कथम्भूतो भवति ? 'लोयग्गणिवासियो सिद्धो' लोकापनिवासी सिद्धो भवति / लोकाग्ने मोक्षालये निवासः स्थानं विद्यते यस्यासौ लोकाप्रनिवासी सिद्धः कृतकृत्यः परमात्मा परब्रह्मस्वरूप इत्यर्थः। इति ज्ञात्वा भो पुरुषसिंहामयसिंह, एवंविषः सिद्धो मनसा स्मरणीयो वचसा वक्तव्यः कायेन तदनुकूलमाचरणीयं शुभवता भवतेति भावार्थः // 67 // अथ स एव सिद्धः पुनः कथम्भूतो भवतीति व्यक्तीकरोति सूत्रकर्ता / तद्यथा- ... मूलगाथा-गमणागमणविहीणो फंदण-चलणेहि विरहिओ सिद्धो / __अव्वाबाहसुहत्थो परमट्ठगुणेहिं संजुत्तो // 68 // संस्कृतच्छाया-गमनागमनविहीनः स्पन्दन-चलनाम्यां विरहितः सिद्धः।। .. अव्यावाघसुखस्थः परमार्थगुणैः संयुक्तः // 68 // टीका-'गमणागमणविहीणो' इत्यादि व्याख्यानं करोति वृत्तिकर्ता मुनिः / गमनागमनविहीना-गतिरने बागमनं संसारे गमनागमनाम्यां विहीनो रहितो भवतीति क्रियाध्याहारः क्रियते। बहुरि सिद्ध कैसा होय है ? सो कहैं हैं भा० व०-सिद्ध होय है / कैसा होय है ? गमन आगमन-रहित होय है / बहुरि चलनाचलन-रहित होय है, अकंप होय है, अब्याबाध सुखसहित है-बाधा-रहित सुख तन्मय होय है / अर परमार्थ गुण जे अनंत ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त दर्शन, अनन्तवीर्य केवलज्ञानादि परमार्थ गुण-संयुक्त होय है // 68 / / / प्रश्न-पुनः क्या करके ? उत्तर-'खविउ सेसाणि कम्मजालाणि' अर्थात् शेष कर्मोंके जालको अर्थात् बारहवें गुणस्थानमें घात करनेसे शेष रहे जो चार अघातियाकर्म हैं, उन सबको क्षय करके / 'जायइ अभूदपुव्वो' अर्थात् पूर्वकालमें जैसा कभी नहीं हुआ, ऐसा अभूतपूर्व होकर / प्रश्न-पुनः कैसा होता है ? उत्तर-'लोयग्गणिवासिओ सिद्धो' अर्थात् लोकके अग्रभागमें-सिद्धालयमें निवास-स्थान है जिसका ऐसा लोकाग्र-निवासी कृतकृत्य परमब्रह्मस्वरूप सिद्ध परमात्मा हो जाता है / ऐसा जानकर हे पुरुषोंमें सिंहके समान श्रेष्ठ अमरसिंह ! भाग्यशाली आपके द्वारा उक्त प्रकारका सिद्ध परमात्मा मनसे सदा स्मरणीय, वचनसे कथनके योग्य और कायसे तदनुकूल आचरण करनेके योग्य है / यह इस गाथाका भावार्थ है // 67 / / अब वही सिद्ध परमात्मा कैसा होता है, यह सूत्रकार प्रकट करते हैं अन्वयार्थ-(गमणागमणविहीणो) गमन और आगमनसे रहित (फंदण-चलणेहि) परिस्पन्द और हलन-चलनसे रहित, (अव्वाबाहसुहत्थो) अव्याबाध सुखमें स्थित (परमट्ठगुणेहिं) परमार्थ या परम अष्टगुणोंसे (संजुत्तो) संयुक्त (सिद्धो) सिद्ध परमात्मा होता है। टोकार्थ-'गमणागमणविहीणो' इत्यादि गाथाका टीकाकार मुनि व्याख्यान करते हैं - वह सिद्ध परमात्मा गमन और आगमनसे रहित है। आगे जानेको गमन कहते हैं / संसारमें वापिस

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