Book Title: Tattvasara
Author(s): Hiralal Siddhantshastri
Publisher: Satshrut Seva Sadhna Kendra
View full book text
________________ तत्त्वसार बोसा गिर पिरियह वर्ष सरासलिले सरोवरणले स्थिरीभूते सति यया निश्चयेन निपतितमपि लंका दृश्यते / बनेन दृष्टान्तेन वाटर्टान्तमाह-'मणसलिले थिरभूए दोसइ अप्पा सहा विमो तथा मनःसलिले मानससरोजले स्थिरीभूते दृश्यते। कः ? असौ आत्मा। कथम्भूतः? 'अत सातत्यगमने' धातोः प्रयोगोऽयं स्वयमात्मनात्मन्यात्मा सातत्येन अतति गच्छति प्राप्नोतीत्यात्मा। कथम्भूते मनोजले ? पराभूते मिथ्यात्व-रागाधज्ञानभावोपार्जितज्ञानावरणादिकर्मोदयवातसमूहे मन्दीभूते सति निस्तरंगसमुद्रवम्मिश्चलीभूते निराकुलोमूते / पुनश्च कथम्भूते ? विमले पापकर्ममलरहिते। अथवा सम्यक्त्वरस्नाच्छावकमूढत्रयादिपञ्चविंशतिमलरहिते शुद्धबुद्धकस्वरूपात्मतत्त्वसम्यकथावानज्ञानानुचरणभेदेतररत्नत्रयभावनोत्पन्नातीन्द्रियसुखामृतरसपरिपूरिते मनःसरोवरे स्वशुद्धात्मरत्न रत्नमिव प्रकटं दृश्यते परिक्षाततत्त्वैः परमयोगिभिभव्यजनसुन्दरः। इति ज्ञात्वा सर्वतात्पर्येण स्वशुखात्माऽनध्यरत्नमिव प्राचं स्वहिताभिलाषिभिभव्यरिति भावार्थः // 4 // भूत होनेपर अर्थात् तरंग-रहित शान्त हो जानेपर उसके भीतर गिरा. हुआ भी रत्न निश्चयसे स्पष्ट दिखाई देता है। आचार्य इस दष्टान्तसे दान्ति कहते हैं-'मणसलिले थिरभए दीसई अप्पा तहा विमले' उसी प्रकार मनरूपी सरोवरके जलके स्थिर हो जानेपर दिखाई देता है / प्रश्न-क्या दिखाई देता है ? उत्तर-आत्मा दिखाई देता है / प्रश्न-वह आत्मा कैसा है ? उत्तर-'आत्मा' यह संस्कृत 'अत' धातुका प्रयोग है, 'अत' धातु निरन्तर गमनके अर्थवाली है। अतः जो स्वयं अपने द्वारा अपने आपमें सतत (निरन्तर) गमन करता रहता है, अपने स्वरूपको प्राप्त होता रहता है, उसे आत्मा कहते हैं। अर्थात् आत्मा निरन्तर गमनशील है। संस्कृत नियमके अनुसार सभी गमनार्थक धातुएँ ज्ञानार्थक होती हैं, अतः वह आत्मा ज्ञानस्वभावी है। प्रश्न-वह आत्मा किस प्रकारके मनोजलमें दिखाई देता है ? उत्तर-प्रशान्त मनोजलमें दिखाई देता है। जब मिथ्यात्व, रागादि और अज्ञानभावसे उपार्जित ज्ञानावरणादि कर्मोदयरूप पवनसमहके पराभूत या मन्दीभूत होने पर निस्तरंग समुद्रके समान मन निश्चल या निराकुल हो जाता है, तब दिखाई देता है। . प्रश्न-पुनः कैसे मनमें दिखाई देता है ? उत्तर-विमल अर्थात् पापकर्मरूप मलसे रहित मनमें दिखाई देता है। अथवा सम्यक्त्वरूप रत्नके आच्छादन करने वाले तीन मढ़ता आदि पच्चीस दोषरूप मलसे रहित, शुद्धबुद्धकस्वरूप आत्मतत्वके सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरणरूप भेदाभेदात्मक रत्नत्रयकी भावनासे उत्पन्न हुए अतीन्द्रिय सुखरूप अमृत-रससे परिपूरित मानस-सरोवरमें रत्नके समान जो शुद्ध आत्मरत्न है, तत्त्वोके ज्ञाता, भव्यजनोंमें सुन्दर श्रेष्ठ परमयोगियोंको प्रकटरूपसे स्पष्ट दिखाई देता है। ऐसा जानकर आत्म-हितके अभिलाषी भव्यजनोंको सर्वसावधानीपूर्वक उसीमें तत्पर होकर अपना शुद्ध आत्मा अमूल्य रत्नके समान ग्रहण करना चाहिए। यह इस गाथाका भावार्थ है // 41 //

Page Navigation
1 ... 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198