Book Title: Tattvasara
Author(s): Hiralal Siddhantshastri
Publisher: Satshrut Seva Sadhna Kendra

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Page 136
________________ तत्त्वसार 103 रागाग्रज्ञानभावोपार्जितकर्मजनितमूर्तत्व-जडत्वरूपपञ्चदेहाद विलक्षणाशरीरामूर्तानन्तज्ञानाघमन्तगुणात्मकरूपः सिद्धोऽशरीरी भवतीति ज्ञात्वा ज्ञान-वैराग्येन भाव्यं भवितव्यं भव्यजीवेरिति भावः // 49 // अथ ज्ञान-वैराग्यभावनां नाटयति-- मूलगाथा-जं होइ भुजियव्वं कम्म उदयस्स आणियं तवसा / सयमागयं च तं जइ सो लाहो णत्थि संदेहो // 50 // संस्कृतच्छाया-यब्रवति भोक्तव्यं कर्मोदयस्य मानीय तपसा / स्वयमागतं च तद् यदि स लाभो नास्ति सन्देहः // 50 // टीका-'ज होइ' इत्यादि, 'ज होइ भुजियव्वं कम्मं उदयस्स आणियं तवसा' द्रव्यकर्मभावकर्म-नोकर्मातीतातीन्द्रियानन्तज्ञानाद्यनन्तगुणमयमूर्तिभरात्मनो विलक्षणं यत्कर्म मोक्षसुखाभिलाषिणा मया बाह्याभ्यन्तरद्वादशविषतपसोदयमानीय भोक्तव्यं भवति, तत्कथम्भूतम् ? 'सय आगें कहैं हैं--जो कर्म उदयमें तपकरि लाइए है सो स्वयमेव उदय आया सो बड़ा लाभ wwwwwww भा० व०-जो कर्म तपकरि उदयमें ल्यायकरि भोगना था सो कर्म जो स्वयमेव उदयमें आया सो बड़ा लाभ जानना, संदेह नाही / भोगना जोग्य है // 50 // - 'शद्-ल' धातुका अर्थ सड़ना गलना है। 'पत्ल' धातुका अर्थ गिरता है। 'जरा' का अर्थ जीर्ण होना है। शरीरमें सड़न-गलन, पतन और जीर्ण दशा प्रत्यक्ष दिखाई देती है / जब कोई भव्य जीव मिथ्यात्व, रागादिभाव और अज्ञानभावसे उपार्जित कर्मोंसे उत्पन्न हुए इस मूर्तत्व, जड़त्वरूपसे पंचदेहसे भिन्न अपनी शुद्ध आत्माका ध्यान करता है, तब वह उक्त पंचदेहसे विलक्षण अशरीरी, अमूर्त, अनन्तज्ञानादि रूप अनन्त गुणोंसे युक्त अशरीरी सिद्ध हो जाता है / ऐसा जानकर भव्य जीवोंको ज्ञान-वैराग्यके साथ आत्माकी भावना करनी चाहिए। यह इस गाथाका भावार्थ है // 4 // . अब सूत्रकार देवसेनाचार्य ज्ञान और वैराग्यभावनाका लाभ बतलाते हैं अन्वयार्थ-(ज) जो (कम्म) कर्म (तवसा) तपके द्वारा (उदयस्स) उदयमें (आणिय) लाकर (भुंजियव्वं) भोगनेके योग्य (होइ) होता है, (2) वह (जइ) यदि (सयं) स्वयं (आगयं) उदयमें आ गया है (सो) वह (लाहो) बड़ा भारी लाभ है / इसमें कोई (संदेहो) सन्देह (पत्थि) नहीं है / टीकार्थ-'जं होइ भुजियव्वं कम्मं उदयस्स आणियं तवसा' इत्यादि गाथाका अर्थ-व्याख्यान करते हैं--द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मसे रहित अतीन्द्रिय, अनन्तज्ञानादिरूप अनन्त गुणमयी मूर्तिवाले आत्मासे विलक्षण जो कर्म है वह मोक्षसुखाभिलाषी मुझे बाह्य और आभ्यन्तर बारह प्रकारके तप-द्वारा उदयमें लाकर भोगनेके योग्य हैं। प्रश्न-फिर वह कर्म कैसा है ! ____ उत्तर--'सयमागयं च तं जई' अर्थात् यदि वह कर्म तत्त्वके जानकार मेरे स्वयं उदयमें आ गया है।

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