Book Title: Tattvasara
Author(s): Hiralal Siddhantshastri
Publisher: Satshrut Seva Sadhna Kendra

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Page 126
________________ तत्वसार 13. टीका-'णाणमय' इत्यादि, 'णाणमयं जियतच्वं मेल्लिय सब्वे वि परगया भावा' जानमयं निजात्मतत्वं मुक्त्वा सर्वेऽपि ये केचन परगता भावाः, 'ते छंडिय भावेज्जो' तान् सर्वान् त्यक्त्वा भाव्यो भवति / कोऽसौ ? सुखसहावं णियप्पाण' शुद्धस्वभावो निजात्मा। तवा हि-निजात्मतत्त्वं चिच्चमत्कारमानं स्वकीयमात्मस्वरूपमेकं मुक्त्वा / कथम्भूतम् ? तन्नित्य-निरञ्जन-निविकार-स्वपरप्रकाशकानाद्यनन्तकेवलज्ञानेन निर्वृतं निष्पन्नं घटितं ज्ञानमयं तस्मिन्निजात्मस्वरूपाद विपरीता ये केचन अपरे परगताः परं पुद्गलादि परद्रव्यं गता मिलिताः परगता भावाः स्वद्रव्यगुण-पर्यायभंवन्तीति भावाः पदार्थाः सर्वेऽपि चेतनेतराः चेतनाचेतनस्वरूपाः, तान् सर्वान् परगतान् भावान् त्यक्त्वा मनोवचनकायस्वासोनो भूत्वाऽन्तरात्मभावेन भाव्यो भवनीयो भवति / कोसो ? निजात्मा / कथम्भूतः ? निर्विकारात्मनः सकाशाद् विपरीतव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्ममलकर रहितत्वाच्छुद्धस्वस्यात्मनो भावः स्वभावः / शुद्धश्चासौ स्वभावश्च शुद्धस्वभावो निश्चयनयन / एवंविषो निजात्मा सर्वथोपादेयो भवतीति भावार्थः // 43 // ____टीकार्य-'णाणमयं' इत्यादि गाथाके अर्थका व्याख्यान करते हैं 'णाणमयं णियतच्वं मेल्लिय सव्वे वि परगया भावा' अर्थात् ज्ञानमयी अपने आत्मतत्त्वको छोड़कर सभी जितने भी कुछ परगत भाव हैं, 'ते छंडिय भावेज्जो' उन सबको छोड़कर भावना करनी चाहिए। . प्रश्न-किसकी भावना करनी चाहिए ? उत्तर-'सुद्धसहावं णियप्पाणं' शुद्ध स्वभाववाले निज आत्माकी भावना करनी चाहिए। -. : इसका खुलासा इस प्रकार है-निज आत्मतत्त्व अर्थात् स्वकीय आत्मस्वरूप चतन्य चमत्कारमात्र है, नित्य निरंजन निर्विकार, स्व-पर-प्रकाशक अनादि-अनन्त केवलज्ञानसे निवृत्त, निष्पन्न या घटित है, अतः ज्ञानमय है। उस निज आत्मस्वरूपसे विपरीत जितने कुछ भी अन्य पर-गत भाव हैं, पुद्गलादि परद्रव्य पर कहलाते हैं; उस 'पर' से गत अर्थात् मिलित भाव परगत भाव कहे जाते हैं / जो स्वद्रव्य, गुण और पर्यायोंसे उत्पन्न होते हैं, उन्हें भाव या पदार्थ कहते हैं। इस प्रकारके सभी चेतन और अचेतनस्वरूप परगत भावोंको छोड़कर, मन वचन कायसे उदासीन होकर अन्तरात्मभावसे अपने शुद्ध आत्माकी भावना करनी चाहिए। प्रश्न-वह निज आत्मा कैसा है ? उत्तर-निर्विकार स्वरूपसे विपरीत द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप मल-कलंकसे रहित होनेके कारण शुद्ध अपने आत्माका जो भाव है, वह स्वभाव कहलाता है। ऐसा शुद्ध जो स्वभाव वह शुद्ध स्वभाव कहा जाता है। ऐसा शुद्धस्वभावी आत्मा निश्चयनयसे सर्वप्रकार उपादेय है। यह इस गाथाका भावार्थ है // 43 //

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