Book Title: Tattvasara
Author(s): Hiralal Siddhantshastri
Publisher: Satshrut Seva Sadhna Kendra

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Page 113
________________ 80 तत्त्वसार कियत्कालपर्यन्तं न प्राप्नोति ? 'जावय परदव्ववावडो चित्तो' यावन्तं कालं परद्रव्ये व्यापृतचित्तः पखव्यासक्तचित्तस्तिष्ठति प्रवर्तते। किं कुर्वन् सन् ? 'उग्गतवं पि कुणंतो' उग्रोपतरं तपो बाद्याभ्यन्तरादिरूपं परीषहोपसर्गसहनशीलमित्येवंविषं तपः कर्वन्नप्यासन्नभव्यः। अमसिंही ब्रवीति-ननु कस्मिन् सति मोक्षः प्राप्यते / 'सुद्ध भावे लहुं लहई' शुद्ध मिथ्यात्व-रागादिरहिते भावे स्वसंवेदनज्ञानपरिणामे शुद्धोपयोगे सति लघु शीघ्रमेव लभते प्राप्नोति,तमेव पूर्वोक्तं मोक्षमेव स एवासन्नभव्यः / अतएव कारणात् स एव शुद्धभावो निरन्तरं सर्वतात्पर्येण तज्जैर्भव्यर्भाव्य इति तात्पर्यार्थः // 33 // अथ परव्रव्यलक्षणपूर्वकं परसमयत्वफलं प्रकटयतिमूलगाथा-परदव्वं देहाई कुणइ मत्ति च जाय तेसुवरि / परसमयरदो तावं बज्झदि कम्मेहि विविहेहिं // 34 // संस्कृतच्छाया-परव्रव्यं देहादि करोति ममत्वं च यावत्तेषामुपरि। .. परसमयरतस्तावद् बध्यते कर्मभिविविधैः // 34 // आर्गे परद्रव्यका लक्षण कहै हैं भा० व०-देहादिक परद्रव्यानि पर जितने ममत्वकू करे है, तितने काल पर परसमय-रत भया संता नाना प्रकारके कर्मनिकरि बंधे है // 34 // प्रश्न-कितने काल तक नहीं प्राप्त कर पाता है ? उत्तर-जावय परदव्ववावडो चित्तो' अर्थात् जितने काल तक चित्त परद्रव्योंमें आसक्त रहता है और पर द्रव्योंमें प्रवृत्ति करता है, तब तक मोक्षको नहीं प्राप्त कर पाता है। प्रश्न-क्या करते हुए भी नहीं प्राप्त कर पाता है ? उत्तर-'उग्गतवं पि कुणंतो' अर्थात् उनसे उग्रतर भी बाह्य और आभ्यन्तररूप तथा परीषहों और उपसर्गोके सहनेरूप. ऐसे महादुष्कर तपको करता हुआ भी निकट भव्य मोक्षको नहीं प्राप्त कर पाता है। प्रश्न-यह सुनकर अमरसिंह पूछते हैं कि फिर किसके पानेपर मोक्ष प्राप्त होता है ? उत्तर-'सुद्धे भावे लह लहइ' अर्थात् मिथ्यात्व और रागादिसे रहित शुद्ध भावके अर्थात् स्वसंवेदनज्ञान-परिणामरूप शुद्धोपयोगके प्राप्त होने पर उसी पूर्वोक्त मोक्षको वही निकट भव्यजीव लघुकालमें शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है। ___अतएव इसी कारण तत्त्वज्ञ भव्यजीवोंको वही शुद्ध भाव निरन्तर सर्व प्रकारसे भावना करनेके योग्य है / यह इस गाथाका तात्पर्यार्थ है // 33 // अब पर द्रव्यके लक्षणपूर्वक परसमयको उपासनाका फल प्रकट करते हैं___ अन्वयार्थ-(देहाई) देहादिक (परदव्वं) पर द्रव्य हैं, (जाय च) और जब तक (तेसुवरि) उनके ऊपर (ममत्ति) ममत्व भाव (कुणइ) करता है, (तावं) तब तक वह (पर-समय-रदो) पर समयमें रत है, अतएव (विविहेहिं) नाना प्रकारके (कम्मेहिं) कर्मोसे (बज्झदि) बंधता है। m

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