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ताओ उपनिषद भाग ३
लेकिन वास्तविक आस्तिक ने कभी प्रमाण दिए ही नहीं हैं। क्योंकि वह कहता है, प्रमाण अनुभव के अतिरिक्त और कोई नहीं है। जानो-वही प्रमाण है। उसके पहले कोई उपाय नहीं है। उसके पहले तो प्रमाण को वही मान लेता है, जो मानना ही चाहता है। वह बात अलग है। जो नहीं मानना चाहता है, वह फौरन इनकार कर देता है। - जब भी आप किसी आदमी को राजी कर लेते हैं, कनवर्ट कर लेते हैं, तो आप यह मत समझाना कि आप जीत गए। वह कनवर्ट होना चाहता था। अन्यथा इस दुनिया में कनवर्ट करने का कोई उपाय नहीं है। वह होना ही चाहता था। आप सिर्फ बहाने हैं। वह तैयार ही था। आपने उसकी ही बात बाहर से कह दी है।
लाओत्से कहता है, उसका और कोई प्रमाण नहीं है। सत्य है बहुत, लेकिन उसके प्रमाण उसमें ही प्रच्छन्न हैं-लेटेंट इन इटसेल्फ। उसी में चले जाओ तो तुम्हें प्रमाण मिल जाएंगे। मैं तुम्हें चलने का मार्ग बता सकता हूं, प्रमाण नहीं दूंगा। अंधा आदमी पूछे, क्या प्रमाण है प्रकाश का? तो लाओत्से कहेगा, तुम्हारी आंख का इलाज बता सकता हूं; प्रमाण क्या दूंगा! आंख ठीक हो जाए, तुम देख लेना! सत्य है बहुत प्रकाश, आंख चाहिए। और आंख न हो तो कोई प्रमाण आंख नहीं बन सकता। और आंख हो तो कोई कितना ही प्रमाणों का खंडन करे, खंडन खंडन नहीं है। हंस सकता है आदमी।
रामकृष्ण के पास लोग जाते थे, तर्क करते थे; और रामकृष्ण हंसते रहते थे। एक दफा केशवचंद्र गए। केशवचंद्र शायद भारत में पिछले सौ वर्षों में, डेढ़ सौ वर्षों में जो बड़े से बड़ा तार्किक पैदा हुआ हो तो केशवचंद्र थे। वैसी लॉजीशियन, वैसी तर्क की प्रतिभा बहुत मुश्किल होती है। केशवचंद्र रामकृष्ण को पराजित करने ही गए थे। और रामकृष्ण तो गंवार थे। रामकृष्ण तो दूसरी कक्षा भी पास नहीं थे। जानने के नाम पर कुछ भी नहीं जानते थे। होने की बात अलग है। थे बहुत कुछ; जानते बहुत कुछ नहीं थे। केशवचंद्र बहुत जानते थे। होने के नाम पर तो दीन थे। लेकिन प्रकांड थी प्रतिभा उनकी, तर्क की दृष्टि से।
बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई थी उस दिन। सब लोग सोचते थे, बेचारा रामकृष्ण बुरी तरह पिटेगा! पिटने की, नौबत ही थी; कोई उपाय ही न था। रामकृष्ण की हैसियत ही क्या थी? केशवचंद्र के साथ तर्क करना-वह पूरे. मनुष्य-जाति के इतिहास में दस-पांच आदमियों के हिम्मत की बात थी। रामकृष्ण का तो कोई सवाल ही न था। वे तो कहीं गिनती में आते नहीं थे। कई लोग तो इसीलिए नहीं आए थे कलकत्ते से कि क्या फायदा! परिणाम पहले से ही जाहिर है, कि रामकृष्ण पिटेंगे। उसमें कुछ है नहीं मामला, जाने की भी जरूरत नहीं है दक्षिणेश्वर तक।
लेकिन उस दिन वहां उलटी हालत हो गई। केशवचंद्र बुरी तरह पिट गए। लेकिन ऐसी घटना कम घटती है। केशवचंद्र ईश्वर के खिलाफ वक्तव्य देने लगे, तर्क देने लगे। और हर तर्क पर रामकृष्ण उठते और नाचने लगते और कहते, क्या सुंदर दलील दी! केशवचंद्र सोच कर आए थे कि रामकृष्ण कहेगा गलत, तो विवाद शुरू होगा। रामकृष्ण ने कहा ही नहीं गलत, तो विवाद का तो कोई उपाय न रहा। और थोड़ी देर में केशवचंद्र को बेचैनी अनुभव होने लगी
और भीड़ भी थोड़ी बेचैन होने लगी कि यह क्या हो रहा है! जिस बात के लिए आए थे, वह कुछ होता दिखाई नहीं पड़ता है। केशवचंद्र फीके पड़ते तो रामकृष्ण उनको जोश चढ़ाते कि बहुत सुंदर, क्यों थकते हैं, कहें, बड़ी गजब की बात कह रहे हैं; जंचती है, बिलकुल ठीक मालूम पड़ती है।
सारे तर्क चुक गए, जल्दी चुक गए। क्योंकि विवाद चलता तो चुकना बहुत मुश्किल था। तो केशवचंद्र ने कहा कि यह सब ठीक है? तो फिर आप मानते हैं कि ईश्वर नहीं है? रामकृष्ण ने कहा कि तुम्हें न देखा होता तो मान भी लेता। तुम्हारी जैसी प्रतिभा जब पैदा होती है तो बिना ईश्वर के कैसे होगी? तुम्हें देख कर तो प्रमाण मिल गया कि ईश्वर है। अपने पास तो छोटी बुद्धि है। रामकृष्ण ने कहा, अपने पास तो बुद्धि बहुत बड़ी नहीं है, उससे ही सोचते थे कि ईश्वर है। तुम्हें देख कर तो पक्का हो गया।
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