Book Title: Tao Upnishad Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 390
________________ ताओ उपनिषद भाग ३ सारी दुनिया में खेल है, प्रतियोगिता है, ओलंपिक्स हैं। हमारी सब हिंसा का उपाय है कि कहीं से वह बह जाए, निकल जाए। यह सब्लिमेशन है, यह ऊर्ध्वगमन है-मनोविज्ञान की भाषा में। कुछ बहुत ऊर्ध्वगमन नहीं है, लेकिन सीधी हिंसा नहीं है। और किसी को कोई बहुत नुकसान नहीं होता। पर आपके भीतर हिंसा है और वह मांग करती रहती है निकलने की, इसे आपको समझ रखना चाहिए। इसलिए जब युद्ध होता है, तो लोगों के चेहरे पर रौनक आ जाती है। आनी नहीं चाहिए, उदासी छा जानी चाहिए। लेकिन होता उलटा है। युद्ध जब होता है, तो लोग रौनक से भर जाते हैं, पैरों में गति आ जाती है, जिंदगी में पुलक मालूम होती है-कुछ हो रहा है! ऐसे ही जिंदगी बेकार नहीं जा रही, चारों तरफ कुछ हो रहा है। हवा गरम है; उसमें आप भी गरमा जाते हैं। आप कितनी ही निंदा करते हों युद्धों की, लेकिन अपने भीतर देखेंगे, तो आपको रस आता है। हां, आपके घर पर ही युद्ध न आ जाए; तब आपको चिंता होती है। वह कहीं दूर होता रहे-वियतनाम में, बंगलादेश में, इजराइल में आप बिलकुल प्रसन्न हैं। होता रहे। सुन कर भी, टेलीविजन पर देख कर, रेडियो पर सुन कर भी, आपको हलकापन आता है। आदमी क्या हिंसा से मुक्त कभी भी नहीं हो सकेगा? मनोविज्ञान के पास तो कोई उपाय नहीं है और निराशा है। मनोविज्ञान कहता है, इतना ही हो सकता है कि हम आदमी की हिंसा को समुचित मार्गों पर गतिमान कर दें। ठीक है, ओलंपिक देखो, पहलवानों को लड़ाओ, फिल्म देखो, यह ठीक है। सीधी मत करो। इस तरह अपने मन को निकाल लो, हलका कर लो। बस इतना ही हो सकता है। या फिर हम आदमी को बदलें। मनोविज्ञान को आशा नहीं मालूम होती। लेकिन लाओत्से, बुद्ध को आशा है; वे मानते हैं, आदमी बदला जा सकता है। आदमी के बदलने का एक ही उपाय है कि आदमी पहले अपनी वस्तुस्थिति से पूरी तरह परिचित हो जाए। पहले तो वह जान ले कि उसके भीतर हिंसा छिपी पड़ी है। इसे स्वीकार करना अहिंसा की दिशा में पहला कदम है। लेकिन हम इसे स्वीकार नहीं करते। हम तो अपने को अहिंसक मानते हैं। क्योंकि कोई रात में पानी नहीं पीता, वह अहिंसक है; कोई पानी छान कर पी लेता है, वह अहिंसक है; कोई मांस नहीं खाता, वह अहिंसक है। हमने अहिंसा की बड़ी सस्ती तरकीबें खोज निकाली हैं। लेकिन जो मांस नहीं खाता उसके व्यवहार में और जो मांस खाता है उसके व्यवहार में, कभी आपने फर्क देखा है कि कोई हिंसा का फर्क हो? कोई फर्क नहीं है। जो आदमी पानी छान कर पीता है और जो बिना छाने पीता है, क्या उनका दोनों का व्यवहार देख कर कोई भी बता सकता है कि इनमें कौन पानी छान कर पीता है? कोई भी नहीं बता सकता। तो अहिंसा क्या हुई? उन दोनों का व्यवहार एक जैसा है। अगर एक जैन दूकानदार है, जो सब तरह से अहिंसा को ऊपर से साध रहा है, और एक मुसलमान दूकानदार है, जो मांसाहारी है और किसी तरह की ऊपरी हिंसा को छोड़ नहीं रहा है। क्या ग्राहक के संबंध में उन दोनों का जो व्यवहार है, उसमें रत्ती भर भी फर्क होता है? कोई फर्क नहीं होता। डर तो यह है कि जो सब तरफ से हिंसा से रोक रहा है अपने को, वह ग्राहक की गर्दन ज्यादा दबाएगा। क्योंकि उसे दबाने का और कहीं मौका नहीं है, फैलाव नहीं है। तो उसकी गर्दन दबाने की वृत्ति ज्यादा तीव्र हो जाए, इसकी संभावना है। क्योंकि हिंसा अगर बहुत सी चीजों में फैल जाए तो उसकी मात्रा कम हो जाती है, डाइल्यूट हो जाती है। सब तरफ से सिकोड़ ली जाए तो फिर उसकी मात्रा घनी हो जाती है। फिर वह सीधी ही पकड़ती है। इसलिए अक्सर यह होता है और इसमें आश्चर्य होता है हमें। भारत कई अर्थों में अहिंसक है-ऊपरी अर्थों में। पश्चिम के मुल्क ऊपरी अर्थों में हिंसक हैं। लेकिन अगर आदमियत, ईमानदारी, सचाई, वचन का भरोसा करना 380

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