Book Title: Tao Upnishad Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 417
________________ मार्ग हैं बोधपूर्वक निसर्ग के अनुकूल जीना 407 करिएगा उस मकान का, अगर उसके भीतर भी प्राण भय से थरथराते रहें? पशु खुले आकाश के नीचे भी शांति से सोया है। सुबह उसकी आंख में जो ताजगी है, वह सुबह आपकी आंख में नहीं होती । ऐसा क्या है आपके पास जो कि आप सोचते हैं पशु होने का डर लगता है कि कहीं पशु न हो जाएं ? पशु ही हैं। और ध्यान रखें, निसर्ग के अनुकूल आप ही हो सकते हैं, पशु नहीं हो सकता। क्योंकि पशु को प्रतिकूल होने का कोई उपाय नहीं है। सिर्फ मनुष्य ही निसर्ग के अनुकूल हो सकता है। पशु तो निसर्ग के अनुकूल है - अचेतन । उसके होने में कोई गरिमा नहीं है, कोई उपलब्धि नहीं है। इसे ऐसा समझिए कि एक आदमी भिखारी है। और फिर एक बुद्ध, राजा के घर में पैदा हुआ, और भिखारी हो जाता है। ये दोनों सड़क पर भी भीख मांग रहे हैं। ये दोनों एक से भिखारी नहीं हैं। बुद्ध के भिखारीपन का मजा ही और है। भिखारी का दुख बुद्ध का आनंद है। दोनों भिखारी हैं, दोनों भिक्षापात्र लिए खड़े हैं। लेकिन बुद्ध एक सम्राट भिखारी हैं। बुद्ध का भिखारीपन स्वेच्छा से लिया गया है, वरण किया गया है। यह बुद्ध की इच्छा का, बुद्ध के अपने संकल्प का परिणाम है। बुद्ध ने छोड़ा है धन; बुद्ध का भिखारी होना सम्राट के बाद की अवस्था है। वह जो भिखारी खड़ा है, उसने धन छोड़ा नहीं है; धन मांगा है, लेकिन मिला नहीं है। अभाव है। वह सम्राट के पहले की अवस्था है। वह जो भिखारी है, वह सम्राट होना चाहता है; बुद्ध सम्राट थे, नहीं हो गए हैं। बुद्ध के भिखारीपन में एक समृद्धि है। उस भिखारी का भिखारीपन सिर्फ भिखारीपन है। वहां सिर्फ रिक्तता है । बुद्ध के भीतर एक भराव है । बुद्ध की गरिमा को वह भिखारी नहीं पा सकता। पशु निसर्ग के साथ हैं, उन्होंने प्रतिकूल होना जाना ही नहीं । वे भिखारी की तरह हैं। आदमी ने प्रतिकूल होना जाना; वह बुद्ध की तरह है। अब अगर वह अनुकूल हो जाए, तो जिस रहस्य को वह पा लेगा, उसे पशु नहीं पा सकते। पशु परमात्मा में लीन हैं, लेकिन अचेतन । मनुष्य परमात्मा से दूर हट आया है, लेकिन चेतन । मनुष्य अगर चेतन रूप से परमात्मा में लीन हो जाए, तो वह स्वयं परमात्मा हो जाता है। पशु है पीछे मनुष्य के, परमात्मा है आगे, बीच में है मनुष्य । इसलिए मनुष्य तकलीफ में है। दो रास्ते हैं उसके शांति के । या तो वह बिलकुल गिर कर पशु हो जाए। पशु होने का अर्थ है, वह अचेतन हो जाए। इसलिए शराब पीकर कभी मन अचेतन हो जाता है, तो आप भी बड़े प्रसन्न मालूम पड़ते हैं। जब शराब का दौर चलता है, दस-पांच मित्र शराब पीते हैं, तो थोड़ी देर में सभ्यता विसर्जित हो जाती है। फिर उनकी आंखें देखें; धीरे-धीरे उनके चेहरे और उनकी आंखों से एक बोझ उतर जाता है। फिर उनके हाथ-पैर में पुलक और गति आ जाती है; फिर उनकी वाणी में ओज आ जाता है। फिर वे बातें हृदयपूर्वक करने लगते हैं। फिर वे जोर-जोर से बातें करने लगते हैं। फिर वे नाच सकते हैं और गीत गा सकते हैं। लेकिन अब वे होश में नहीं हैं। यह बड़े मजे की बात है! जब वे होश में थे, तो नाच नहीं सकते थे; अब वे होश में नहीं हैं, तो नाच सकते हैं। यह पशु जैसा हो जाना है; वापस नीचे गिर जाना है। बेहोशी का अर्थ है, नीचे गिर जाना; होश का अर्थ है, वापस नीचे गिरना नहीं, ऊपर उठ जाना । इसलिए संत की आंखों में भी पशु जैसी सरलता दिखाई पड़ेगी, वैसा ही निर्दोष भाव दिखाई पड़ेगा। लेकिन संत पशु नहीं है। संत पशु जैसा ही सरल हो गया, लेकिन होशपूर्वक । शराबी बेहोश। किसी ने एल एस डी ले लिया हो, किसी ने मारिजुआना ले लिया हो, उसकी आंखों में भी एक निर्दोषता, सरलता आ जाती है। लेकिन वह पशु की सरलता, निर्दोषता है। वह बेहोश हो गया; वह नीचे गिर गया; उसने अपनी आदमियत का त्याग कर दिया। आदमियत का त्याग दो तरह से हो सकता है: पीछे गिर कर भी, आगे जाकर भी । पीछे गिरना पशुता है । लाओत्से पीछे गिरने को नहीं कह रहा है।

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