Book Title: Tao Upnishad Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 412
________________ ताओ उपनिषद भाग ३ 402 और जब आप दुखी होते हैं तो पता है, आप क्या करते हैं? आप जब दुखी होते हैं, तब आप वही भूल दोहराते हैं जिसके कारण आप दुखी हैं। तब आप किसी से पूछने जाते हैं कि कोई रास्ता बताइए, जिस पर मैं चलूं और मेरा दुख मिट जाए। वह आपको रास्ता बताएगा कोई न कोई । वह रास्ता उसका होगा। और हो सकता पर चलने से उस आदमी का दुख भी मिट गया हो। मगर वह रास्ता उसका होगा। और दूसरे का रास्ता आपका रास्ता नहीं हो सकता। आपको अपना रास्ता खोजना पड़ेगा। उस आप दूसरों के रास्तों से परिचित हो लें, इससे सहयोग मिल सकता है। आप दूसरे के रास्तों को पहचान लें, इससे अपने रास्ते की खोज में सहारा मिल सकता है। लेकिन किसी दूसरे के रास्ते पर अंधे की तरह चले अगर आप तो आपको अपना रास्ता कभी भी नहीं मिलेगा। कितने लोग महावीर के पीछे चले हैं, और एक भी महावीर नहीं हो सका। और कितने लोग बुद्ध के पीछे चले हैं, और एक भी बुद्ध नहीं हो सका। क्या कारण है? इतना अपव्यय हुआ है शक्ति का, कारण क्या है ? कारण एक है: आपका रास्ता किसी दूसरे का रास्ता नहीं है, और किसी दूसरे का रास्ता आपका रास्ता नहीं है। आत्माएं अद्वितीय हैं, और हर आत्मा का अपना रास्ता है। तो क्या करें? अपने दुख को समझें, अपने दुख के कारण को खोजें कि मेरे दुख का कारण क्या है। उस कारण से हटने की कोशिश करें। रास्ते मत खोजें, दूसरों से जाकर मत पूछें। क्या है दुख का कारण आपका ? मेरे पास न मालूम कितने लोग आते हैं। उनके दुख का कारण इतना साफ है कि हैरानी होती है कि उनको दिखाई क्यों नहीं पड़ता ! ऐसा लगता है कि वे देखना ही नहीं चाहते। और अगर उन्हें कोई रास्ता भी बताया जाए, उस रास्ते पर चल कर भी वे दुख का कारण तो साथ ही ले जाते हैं। तो अधिक लोगों के दुख का कारण अहंकार है । इतना साफ है, लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ता। मेरे पास लोग आते हैं। उनको मैं कहता हूं कि यह अहंकार ही दुख दे रहा है। वे कहते हैं, छूटने का कोई रास्ता बताइए । उनको कोई रास्ता बता दूं; वे उस रास्ते पर चलेंगे, मगर वह जो बीमारी थी, उसको साथ ही ले आएंगे। मैं उनको कहता हूं, चलो, एक संन्यास में छलांग लगा लो। वे संन्यास में भी छलांग लगा लेते हैं। लेकिन तब संन्यासी का अहंकार उनको पकड़ लेता है। तब वे मानते हैं कि जिन्होंने संन्यास नहीं लिया, वे उनसे छोटे हैं; और जिन्होंने ले लिया, वे कुछ बड़ी ऊंचाई पर पहुंच गए हैं। वे गैर-संन्यासी को ऐसा देखते हैं जैसा कि सहानुभूति से किसी दुखी, पीड़ित आदमी को देखा जाता है कि ठीक है, भटको जब तक भटकना है! हम पहुंच गए; तुम भटको । यह उनकी बीमारी थी; इससे छोड़ने को कहा था एक छलांग लगा लो। ये बीमारी को साथ ले आए। फिर दस-पचास संन्यासी इकट्ठे हो जाते हैं, तो छोटे-बड़े का सवाल शुरू हो जाता है। फिर उनमें कलह शुरू हो जाती है, फिर पालिटिक्स शुरू हो जाती है। फिर वे दल बना लेते हैं; फिर एक-दूसरे की काट-पीट शुरू कर देते हैं। उन्होंने एक संसार बना लिया - आल्टरनेटिव, छोटा सा । ये सौ आदमी के भीतर सारी राजनीति आ जाती है, जो दिल्ली में चलती हो, वाशिंगटन में चलती हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। कौन कहां बैठा है; कौन कौन सा काम कर रहा है; कौन को कितनी प्रतिष्ठा मिल रही है - वह सारी बीमारी साथ खड़ी है। यह कठिनाई है। बीमारी हम देखना नहीं चाहते । या फिर मामला ऐसा है जैसा कि खाज किसी को हो जाती है। तो वह जानता भी है कि खुजलाने से दुख होता है, लेकिन खुजलाने में रस भी आता है। अकेला दुख होता तो खाज को कोई भी न खुजलाता। खाज में दोहरा उपद्रव है, मजा भी आता है खुजलाने में तो जिस दुख में मजा आता है, उससे बचना मुश्किल हो जाता है। आपको अहंकार में मजा भी आता है; वह खाज है। फिर दुख भी होता है। जब दुख होता है, तब आप हाथ

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