Book Title: Tao Upnishad Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 413
________________ मार्ग हुँ बोधपूर्वक निसर्ग के अनुकूल जीना 403 जोड़ कर आ जाते हैं कि कोई रास्ता बताइए। जब चमड़ी बिलकुल उखड़ जाती है, और लहूलुहान हो जाता है और खून बहने लगता है, तब आप कहते हैं, कोई रास्ता बताइए, बहुत दुख पा रहे हैं। लेकिन थोड़ी देर में चमड़ी फिर ठीक हो जाएगी, खून बंद हो जाएगा; फिर आपके भीतर सरसराहट शुरू होगी कि थोड़ा खुजा कर देखो, बड़ा मजा आता है। खाज है अहंकार। अकेला दुख नहीं है, शुद्ध दुख नहीं है; उसमें थोड़ा रस भी मिश्रित है। वही रस पीछा करता है। इसलिए जहां भी आप जाते हो, वह रस पीछा करता है। अगर आप दुख पा रहे हो, तो समझना कि अहंकार वहां है। अगर आप दुख पा रहे हो, तो समझना कि आप प्रकृति के प्रतिकूल चल रहे हो। और प्रतिकूल चलने के दो ढंग हैं। शरीर को भोजन चाहिए। आप दो ढंग से शरीर को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इतना खाना खा लें कि शरीर के लिए झेलना मुश्किल हो जाए; दुख शुरू हो जाएगा। यह प्रतिकूल चले गए। या भूखे रह जाएं, बिलकुल न खाएं, तो भी दुख शुरू हो जाएगा। तो ध्यान रखना, प्रतिकूल होने के दो उपाय हैं। अनुकूल होने का एक उपाय है, और प्रतिकूल होने के दो उपाय हैं। और आदमी का मन ऐसा है कि एक प्रतिकूलता से दूसरी पर चले जाने में उसे सुविधा होती है; क्योंकि वह भी प्रतिकूल है। इसलिए ज्यादा भोजन करने वाले लोग अक्सर उपवास करने को राजी हो जाते हैं। असल में, जिस आदमी ने सम्यक भोजन किया है, वह उपवास की मूढ़ता में पड़ेगा ही नहीं। क्यों उपवास करेगा? जिसने ठीक भोजन किया है, उतना ही भोजन किया है जितना शरीर को जरूरत थी, वह उपवास करने का कोई सवाल नहीं उठता। सिर्फ अति भोजन किया है, तो फिर अनाहार में उतरना पड़ेगा। और जो अति भोजन करता है, वह तत्काल अनाहार के लिए राजी हो जाता है। इसको आप समझ लें । अति भोजन करने वाले को अगर कहें कि कम भोजन करो, तो वह कहेगा, यह जरा कठिन है; बिलकुल न करो, यह हो सकता है। अगर एक आदमी सिगरेट पीता है, उससे आप कहें, दस की जगह पांच पीओ। वह कहेगा, यह जरा कठिन है; बिलकुल न पीऊं, यह हो सकता है। क्यों? क्योंकि अति की आदत है; या तो पीऊंगा दिन भर, या बिलकुल नहीं पीऊंगा। इन दोनों में से चुनाव आसान है। लेकिन मध्य में रुकना कठिन है। मध्य में रुकना कठिन है। मध्य में रुकने का मतलब है कि आप प्रकृति के अनुकूल होना शुरू हो गए। प्रकृति है मध्य, संतुलन, संयम । ध्यान रखना, हमने संयम का अर्थ ही खराब कर दिया है। संयम का हमारा मतलब होता है दूसरी अति । अगर एक आदमी उपवास करता है, हम कहते हैं, बड़ा संयमी है। असंयमी है वह आदमी उतना ही, जितना ज्यादा ख • वाला असंयमी है। संयम का मतलब क्या है ? संयम का मतलब है संतुलित, बैलेंस्ड, बीच में; न इस तरफ, न उस तरफ। झुकता ही नहीं अति पर, बिलकुल मध्य में है। मध्य में जो है, वह संयम में है। और संयम सूत्र है निसर्ग के अनुकूल हो जाने का। लेकिन आपका संयम नहीं; आपका संयम तो असंयम का ही एक नाम है - दूसरी अतिर अहंकार है, अति है, और भीतर जिन चीजों से आप छूटना चाहते हैं, उनमें ही रस भी है। इसे पहचानना पड़ेगा। आपके हर दुख में आपका हाथ है और रस है । रस को आप नहीं देखते, आप सिर्फ दुख को देखते हैं; तो आप कभी नहीं छूटेंगे। रस को भी देखें। रस से ही छूटेंगे तो दुख से छूटेंगे। जिस आदमी को खाज खुजलाने में रस है, उससे कितना ही कहो कि दुख है, वह भी मानता है कि बहुत दुख है, वह भी दुख झेल चुका है। पहले उसको समझाओ कि रस भी है! और रस को समझ लो ठीक से, और रस लेना चाहते हो तो यह दुख की कीमत चुकानी पड़ेगी। फिर दुख से बचने की बात मत पूछो। लोग मुझसे आकर कहते हैं, बड़ी अशांति है। उन्हें मैं कारण बताता हूं। वे कहते हैं, वह कारण तो छोड़ना मुश्किल है। आप तो अशांति हटाने का उपाय बता दें। इसलिए लोग झूठी तरकीबों में पड़ जाते हैं।

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