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- समर्पण हुँ मार ताओ का
महात्मा बनना है, बहुत सरल काम है। और उसके लिए मेरे पास आने की भी जरूरत नहीं है, थोड़े से प्रचार और विज्ञापन की कला आनी चाहिए। धार्मिक होना है तो लंबी यात्रा है। और उसका पहला सूत्र है कि प्रकट करने की भूल मत करना। क्यों? यह प्रकट करने के लिए इतनी बड़ी भूल समझने का कारण क्या है?
आदमी के हाथ में एक कदम उठाना है, फिर दूसरा कदम अनिवार्य हो जाता है, फिर तीसरा कदम अनिवार्य हो जाता है।
जिब्रान ने लिखा है कि एक फकीर गांव-गांव घूमता था और कहता था, जिसे प्रभु के पास चलना हो, मेरे पीछे आ जाए। कई लोगों ने कहा, बड़ी आकांक्षा होती है तुम्हारे पीछे आने की, लेकिन अभी बहुत काम संसार में बाकी हैं। किसी की लड़की बड़ी है और विवाह करना है। और किसी के बच्चे अभी छोटे हैं, मासूम हैं, थोड़े बड़े हो जाएं, सम्हल जाएं। और किसी ने अभी-अभी दुकान जमाई है। और किसी ने अभी-अभी खेत में दाने डाले हैं; फसल कट जाए। ऐसे हजार काम थे। वह फकीर गांव-गांव चिल्लाता है कि जिसको ईश्वर के पास चलना हो, मेरे पास आ जाए; मैं ईश्वर का रास्ता जानता हूं। गांव में लोग उसकी बड़ी प्रशंसा करते थे।
एक गांव में बड़ी मुसीबत खड़ी हो गई। एक आदमी उसके पीछे चलने को राजी हो गया। फकीर मुसीबत में पड़ा। क्योंकि वह आदमी दो-चार दिन में उसको पूछता कि कितनी देर और है? कहां है रास्ता? उस फकीर ने उसको कठिन से कठिन काम बताए। लेकिन वह भी आदमी जिद्दी था। वह सब काम पूरा करके खड़ा हो जाए और बोले, कोई और रास्ता, विधि, मार्ग?
छह साल हो गए। फकीर सूख कर हड्डी-हड्डी हो गया-इस आदमी की वजह से। क्योंकि वह चौबीस घंटे तनाव हो गया; रात सोने न दे, दिन जागने न दे। और उसकी मौजूदगी भी भारी होने लगी। आखिर एक दिन फकीर उसके पैरों में पड़ गया और कहा, मुझे माफ कर दे, तेरी वजह से मैं भी रास्ता भूल गया। और मुझसे गलती हो गई, अब मैं किसी को न कहूंगा।
यह जो आदमी है जो कह रहा था कि मैं रास्ता जानता हूं, इसे कोई रास्ता पता नहीं है। लेकिन मैं रास्ता जानता ह, ऐसा भी लोग मानें इसमें भी बड़ा सुख है। और न कभी कोई पीछा करने आता है, इसलिए न कभी कोई परीक्षा होती है। जिन्हें आप संत कहते हैं, उनमें से सौ में से निन्यानबे एकदम पानी में डूब जाएं, अगर आप उनके पीछे चलने को राजी हो जाएं। आप कभी पीछे चलते नहीं, वे नेता बने रहते हैं। क्योंकि बिना अनुयायी के नेता बना रहना बड़ी सरल बात है। और धीरे-धीरे उन्हें भी भरोसा आ जाता है कि वे जानते हैं। जब आपकी आंखों में चमक आती है और आपको लगता है कि हां, यह आदमी जानता है तो उस आदमी को भी तृप्ति होती है।
हम एक-दूसरे का उपयोग दर्पण की भांति करते हैं; अपनी शक्ल दूसरे में देख लेते हैं।
यह जो प्रकट करने की वृत्ति है, वह जिस अहंकार से जन्मती है, वह अहंकार बाधा है। संत अगर प्रकट हो जाएं, दूसरी बात है। कोई उन्हें खोज ले, जान ले, पहचान ले, दूसरी बात है। लेकिन वह जो गहन वासना है कि दूसरा मुझे जाने, वह संतत्व का हिस्सा नहीं है। दूसरा मुझे जाने, यह सांसारिक मन की वृत्ति है। मैं स्वयं को जाने, यह धार्मिक मन की वृत्ति है। कोई मुझे न जाने, अकेला मैं ही अपने को जान लूं, यह धार्मिक खोज है। मैं अपने को जानूं, न जानूं, सारा संसार मुझे जान ले; ऐसा न हो कि एकाध आदमी ऐसा भी रह जाए जो मुझे जाने बिना रह जाए, यह सांसारिक मन की वृत्ति है।
एक दिन सांझ मुल्ला नसरुद्दीन के काफी हाउस में बड़ी भीड़ है-गांव के काफी हाउस में। एक योद्धा आया है। वह नंगी तलवार हाथ में निकाल कर अपने युद्ध की बातें कर रहा है। और वह कहता है कि हम युद्ध से सीधे लौट रहे हैं। और लोग बड़े सकते में आ गए हैं; उसकी बहादुरी ऐसी है। और वह कहता है कि मैंने भाजी-मूली की
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