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समर्पण सार ताओ का
यही बातें किसी ने डिब्बे के भीतर आपसे कही थीं। लेकिन डिब्बे के भीतर आदमी प्रवेश करते ही आत्मा बदल जाती है। डिब्बे के बाहर दूसरी आत्मा होती है; डिब्बे के भीतर दूसरी आत्मा होती है। आपको पता ही नहीं चलता कि आत्मा इतनी जल्दी कैसे बदलती है। और ऐसा नहीं कि अभी जो आदमी गिड़गिड़ा रहा है, वह नहीं बदलेगा। डिब्बे के भीतर आने दो, अगले स्टेशन पर उसकी बातें सुनो कि वह लोगों से बाहर क्या कह रहा है। तब आपको पता चलेगा कि आदमी जो कहता है, वह परिस्थिति पर निर्भर होने वाली बातें हैं।
जिसको नेता बनना है, उसे सब तरह के उपद्रव करने होते हैं। लेकिन जो नेता बन गया और नेता जिसे बना रहना है, उसे बाकी को समझाना पड़ता है कि उपद्रव मत करना। सच तो यह है कि जो उपद्रव करके आगे आता है, वह उपद्रव के बहुत खिलाफ होता है; क्योंकि उसे पक्का पता है कि आगे आने का रास्ता क्या है, जो आगे पहले से हैं उनको गिराने का रास्ता क्या है।
मैक्यावेली ने लिखा है कि जिस सीढ़ी से चढ़ो, चढ़ते ही पहले उसे नष्ट कर देना। और मैक्यावेली मनुष्य के मन में झांकने वाले गजब के लोगों में से एक है। थोड़े ही लोग इतना गहरे देखते हैं आदमी के अस्तित्व में। मैक्यावेली कहता है, पहला काम चढ़ जाने पर सीढ़ी के करना सीढ़ी तोड़ देने का। क्योंकि ध्यान रखना, सीढ़ी निष्पक्ष है; जैसा तुम्हें चढ़ा दिया, किसी दूसरे को भी चढ़ा सकती है। मैक्यावेली कहता है कि नेता को और अनुयायी के बीच बहुत फासला रखना चाहिए। क्योंकि पास के लोग खतरनाक होते हैं।
इसलिए कोई भी नेता बुद्धिमान लोगों को अपने आस-पास पसंद नहीं करता, बुद्धओं को पसंद करता है। उनमें फासला इतना होता है कि अगर उनको सीढ़ी भी लगा दो तो उनकी समझ में न आएगा कि इस पर चढ़ना है। ऐसे आदमी ठीक रहते हैं। इसलिए हर नेता के पास बुद्धओं की जमात होगी। उन्हीं पर वह जीता है।
एक तो रास्ता है क्यू में इस तरह उपद्रव करके आगे खड़े हो जाने का। नेता इस भांति खड़े होते हैं। यह पोलिटिकल रास्ता है, राजनीतिक का रास्ता है।
संत भी कभी-कभी आगे पाए जाते हैं। लेकिन उनके खड़े होने का ढंग दूसरा है। वे क्यू में पीछे खड़े हो जाते हैं। जहां भी धक्कमधुक्की है, वे पीछे खड़े हो जाते हैं। लेकिन उनके पीछे खड़े होने की यह जो शांत स्थिति है, क्योंकि जिसे आगे नहीं जाना है, उसको अशांत होने का कोई कारण नहीं है। जिसे आगे नहीं जाना है, उसको चिंतित होने की कोई वजह नहीं है। जिसे आगे नहीं जाना है, उसकी न कोई प्रतिस्पर्धा है, न कोई प्रतियोगिता है, न कोई ईर्ष्या है, न कोई संघर्ष है। जिसे आगे नहीं जाना है, उसका कोई दुश्मन नहीं है। कोई प्रयोजन नहीं दुश्मन का। जिसका कोई दुश्मन नहीं, जिसकी कोई अशांति नहीं, चिंता नहीं, पीड़ा नहीं, दुख नहीं, उसमें जो दीप्ति आनी शुरू हो जाती है, उस दीप्ति के कारण कुछ लोग उसके पीछे क्यू लगाने लगते हैं। यह दूसरी प्रक्रिया है। ये लोग पीछे खड़े होते जाते हैं। और इनको इतना चुप खड़ा होना होता है कि उसको पता न चल जाए कि पीछे और लोग खड़े हो गए हैं। नहीं तो वह उनके पीछे जाकर खड़ा हो जाएगा।
गुरजिएफ कहता था कि संतों के पीछे चलना हो तो पता मत चलने देना, तुम्हारे पैर की आवाज मत होने देना। क्योंकि संत पीछे खड़े होने के बड़े प्रेमी हैं। वे तुम्हें आगे कर लेंगे। उनके पीछे ऐसे चलना कि जैसे तुम हो ही नहीं।
कभी-कभी ऐसा होता है कि इन संतों के पीछे भी लाखों लोग इकट्ठे हो जाते हैं। लेकिन यह आगे होने की प्रक्रिया गुणात्मक रूप से भिन्न है। इस आगे होने में किसी को पीछे नहीं किया गया है। इसमें लोग पीछे हो गए हैं। राजनीति में अनुयायी बनाने पड़ते हैं; धर्म में अनुयायी बन जाते हैं। राजनीति में लोगों को पीछे रखना पड़ता है; धर्म में पीछे लोग खड़े हो जाते हैं। यह एक सहज घटना है। और इस सुगंध को दूर-दिगंत तक हवाएं अपने आप ले जाती हैं। इसलिए जो अभिमानी नहीं हैं, वे लोगों के बीच अग्रणी बने रहते हैं।
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