Book Title: Swapna Siddhant
Author(s): Yogiraj Yashpal
Publisher: Randhir Prakashan

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Page 14
________________ ॥ ॐ आद्य गुह्य विद्यायै नमः ॥ 1.स्वप्न मीमांसा स्वप्न-विषय पर जब भी विचारा जायेगा तभी मनोवैज्ञानिक फ्रायड़ के स्वप्न-सिद्धान्त की बात अवश्य की जायेगी क्योंकि यह वह व्यक्तित्व था जिसने स्वनों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करके यह प्रमाणित किया था कि हम स्वप्न में जो कुछ भी देखते हैं उसका अर्थ उससे भिन्न हुआ करता है। इसने स्वप्नों को निरर्थक नहीं अपितु सार्थक माना है । वह मानता है कि कोई भी स्वप्न अकारण या निरर्थक नहीं होता है। उसका मानना है कि स्वप्न मनुष्य की सुषुप्तावस्था की वह अचेतन मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा छद्म स्वरूप से मनुष्य के अचेतन मन में दबी इच्छाओं की अभिव्यक्ति एवं सन्तुष्टि होती है। उसने स्वीकार किया है कि स्वप्न मनुष्य की दमित अभिलाषाओं की सन्तुष्टि करता है। जब हम स्वप्नों को समझने का प्रयास करते हैं तो हमें मुख्यता दो बातों की जानकारी होना अति आवश्यक होता है । यह दो बातें हैं-दैहिक व मानसिक। विभिन्न विद्वानों ने स्वीकार किया है कि प्रत्यक्षीकरण विपर्यय और समप्रत्यक्षीकरण प्रयत्न ही स्वप्नों का जन्मदाता है। इसी कारण हमें दैहिक नियम जानने आवश्यक होते हैं-यदि हम स्वप्नों को जानना चाहें । दैहिक नियमान्तर्गत दो पक्ष होते हैं1. प्रथम पक्ष-जब कोई उत्तेजना किसी को उसकी सुषुप्तावस्था में प्रभावित करती है तो उस समय स्वप्न आता है। इस प्रथम पक्ष के अनुसार मनुष्य का मन निद्रावस्था में सक्रिय नहीं हुआ करता है। यही कारण है कि मन में साहचर्य की क्रियायें निर्बल हो

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