Book Title: Swami Dayanand aur Jain Dharm
Author(s): Hansraj Shastri
Publisher: Hansraj Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ "सप्तभंगी और स्वामी दयानन्द सरस्वती" [क] स्वामी द० स०--" अब जो वौद्ध और जैनी लोग सप्तभंगी और स्याद्वाद मानते हैं सो यह है. " सन् घटः " इसको प्रथम भंग कहते हैं क्योंकि घट अपने वर्तमानतासे युक्त अर्थात् घड़ा है इसने अभावका विरोध किया है । दूसरा भंग " असन् घटः " घड़ा नहीं है प्रथम घटके भावसे यह घड़ेके असद्भावसे दूसरा भंग है । तीसरा भंग यह है कि " सन्नसन् घटः " अर्थात् यह घडा तो है परंतु पट नहीं क्योंकि उन दोनोंसें पृथक् हो गया। चौथा भंग " घटोऽघटः" जैसे " अघटः पटः " दूसरे पटके अभावकी अपेक्षा अपनेमें होनेसे घट अघट कहाता है युगपत् उसकी दो संज्ञा अर्थात् घट और अघट भी है । पांचवां भंग यह है कि घटको पट कहना अयोग्य अर्थात् उसमें घटपन वक्तव्य है और पटपन अवक्तव्य है। छठा भंग यह है कि जो घट नहीं है वह कहने योग्य भी नहीं और जो है वह है और कहने योग्य भी है । और सातवां भंग यह है कि जो कहनेको इष्ट है परंतु वह नहीं है और कहनेके योग्य भी घट नहीं यह सप्तमभंग कहाता है" इत्यादि। [ पृष्ट ४१० ] " यह कथन एक अन्योन्याभावमें साधर्म्य और वैधय॑मे चरितार्थ हो सकता है। इस सरल प्रकरणको छोड़कर . कठिन जाल रचना केवल अज्ञानियोंके फसाने के लिये होता है। देखो जीवका अजीवमें और अजीवका जीवमें अभाव रहता ही है जैसे जीव और जड़के वर्तमान होनेसे साधर्म्य और चेतन . तथा जड़ होनेसे वैधर्म्य अर्थात् जीवमें चेतनत्व (अस्ति) है

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159