Book Title: Swami Dayanand aur Jain Dharm
Author(s): Hansraj Shastri
Publisher: Hansraj Shastri

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Page 127
________________ सत्यासत्यके विवेकसे शून्य और श्रेष्ट पुरुषोंसे निष्कारण सदा विरोध रखनेवाले हैं ! उनके होनेसे संसारको किसी प्रकारका लाभ नहीं है ! या यूं कहिए कि, वे सृष्टि में एक प्रकारके भार रूप ही है ! परंतु इस उपदेशसे जैनोंको स्वामीजी निर्दयः किस कारणसे बतलाते हैं ? वह हम नहीं समझ सकते। . इसके अतिरिक्त स्वामीजीने उक्त ग्रंथके और भी कितनेक श्लोक सत्यार्थ प्रकाशमें उद्धृत कर उनकी समीक्षा की है. परंतु उन सबपर विचार करना पासेहुएको पीसने समान व्यर्थ है ! क्योंकि, वहांपर भी स्वामीजी सर्वथा उसी पद्धतिसे काम ले रहे हैं जिसके स्वरूपसे हमारे पाठक बखूबी परिचित हो चुके हैं, इसलिए उक्त ग्रंथकी समीक्षाके विचारको अब यहींपर समाप्त करते हुए हम पाठकोंका ध्यान अन्यत्र बैंचते हैं. "विवेकसार और स्वामी दयानंद" स्वामीजी महोदयने आगे चलकर विवेकसार नामके किसी एक भाषा ग्रंथके नामसे कितनीएक बातें उद्भत करके जैनोंपर बहुत अनुचित आक्षेप किए हैं ! जैनोंपर आक्षेप करनेके विषयमें हमे कोई विवाद नहीं है. हमको तो उन आक्षेपोंकी असभ्यता और भ्रममूलकताके विषयमें कुछ विचार करना है. __हम अपने पाठकोंको इतना और भी बतला देते हैं कि, हम विवेकसारकी बातोंपर विवेकसारके आधारपर विचार नहीं करेंगे; किंतु जैन धर्म के सर्व मान्य ग्रंथोंमें उन बातोंका जिस प्रकार उल्लेख किया गया होगा उसके अनुसार विचार करेंगे. स्वा० द० स०- . अब इन जैनियों के साधुओं की लीला देखिये।

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