Book Title: Swami Dayanand aur Jain Dharm
Author(s): Hansraj Shastri
Publisher: Hansraj Shastri

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Page 150
________________ १५.२ नेकाः प्रयत्न करें ततो मध्यस्थ प्रजाको बहुत लाभ हो । परंतु एक तर्फ तो " जैनोंमें जो उत्तम पुरुष हैं " कथन करना और दूसरी तर्फ " जो उत्तम पुरुष हैं वह जैनोंमें रह ही नहीं सकता " कहना ! इस वदतो व्याघात के दोलतेसे स्वामीजीकी क्या दशा हुई. और वर्त्तमान आर्य समाजने - उसकी क्या चिकित्सा की ? यह हम नहीं कह सकते . । क्या. नैनों में कोई उत्तम पुरुष नहीं ? सब अधम ही अधम हैं ? स्वामीजीके दलके तो सब उत्तम ! और जैनसमाजके - सब अधम ! कितने इन्साफकी बात हैं ? जघानको थोड़ीसी -भी लगाम की जरूरत नहीं रखी ! धन्य है आर्यसमाज के कलियुगी । महर्षि ! अब . विचारशील पुरुषोंसे हमारा निवेदन है कि, स्वामी दयानंद सरस्वतीजीकी तरह यदि कोई जैनसमाजका नेता वर्तमान आर्यदलको अधम बतलावे तो उसको भी जैन समाज की, तर्फ (वर्तमान आर्यसमाजकी तरह ) महर्षिकी पदवी मिलनी चाहिए याकि नहीं ? इसके अतिरिक्त भी स्वामीजीने विवेकसार-तत्वविवेकरत्नसार प्रभृति भाषा के क्षुद्र क्षुद्र ग्रंथोंके ही कितनेक वाक्य उद्धृत करके जैनोंपर मनमाने आक्षेप किए हैं, परंतु उनको उचित था कि, वे जैनधर्म के सर्वमान्य सिद्धान्त ग्रंथों के वाक्योंको उद्धृत करके उनकी समीक्षा करते ! हमे विवश होकर कहना पड़ता है कि, जैनधर्म के खंडन करनेमें सत्यार्थ - प्रकाशकां - लगभग दोसौ पृष्ठ काला किया है परंतु उसमें रत्नसार विवेकसार आदिके सिवा जैनधर्म के किसी भी आगमका वाक्य तक भी उद्धृत नहीं किया 1 सत्यार्थ प्रकाशकी भूमिका के अंदर स्वामी जीनें जैनोंके माननीय जितने ग्रंथोंका उल्लेख किया है उनमें से . एकका भी वाक्य. बारवें समुलासमें देखने में नहीं आता ! हम 2 : 1

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