Book Title: Swami Dayanand aur Jain Dharm
Author(s): Hansraj Shastri
Publisher: Hansraj Shastri

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Page 141
________________ ': संजनो ! दंडी महोदय आंखोंसे ही अंधे नहीं थे, किंतु विचारसे भी'। आपके पवित्र चरित्रको यदि किसीने एक वार भी अध्ययन किया होगा तो उसको स्वामी दयानंदजीका मतांतरीय विद्वानोंको गालिएँ तक देनेका हेतु बड़ी सरलतासे समझमें आंसकेगा । क्योंकि गुरुके आचरणोंपर ही चेलोंकी सभ्यता निर्भर है ! स्वामी दयानंद सरस्वतीजीके गुरु नेत्र हीन स्वामी विरजानंद दंडीजीका चरित्र कितना पवित्र था इसका एक उदाहरण हम पाठकोंकी सेवामें निवेदन करते हैं. " श्री महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वतीके गुरु श्री स्वामी विरजानंद सरस्वती दण्डीजीका जीवन चरित्र " नामकी पुस्तकके पृष्ट १९-२० में लिखा है कि-- " संवत् १९१७ के चैत्र मासमें एक सत्यके जिज्ञासु " विद्यार्थी स्वामी दयानंद 'नामा । उसके पास आ गये जिस " तरह रेखा गणितसे अनभिज्ञ मनुष्य अफलातूनका शिष्य " नहीं हो सकता था उसी प्रकार व्याकरणका न जानने" वाला विरजानंदका शिष्य नहीं हो सकता था। व्याकरणं " जाननेके कारण ही ऋषि विरजानंदने विद्यार्थी दयानंदकों "शिष्य बनाया । तत्पश्चात् कौमुदी आदि ग्रंथ जो उनके " ( दयानंदके ) पास थे, यमुना नदीमें किकवा दिये । " और जब दयानंदजी यमुनामें निश्चय ग्रंथ वहाकर आ "गये तो ऋपिने कहा कि अपनी बुद्धिसे भी इन ग्रंथों के "विचारको पृथक कर दो, तब अटाध्यायी पहाऊंगा। "दंडीने यह निश्चय कर लिया था कि भागवतादि पुराणों " और सिद्धांत आदि अनार्ष ग्रंथोंने संसारमें अत्यंत मूर्खता " और स्वार्थतत्परताका राज्य फैला रक्खा है। इसी कारण " भ्रष्ट ग्रंथोंके । कर्त्ताओंकीओरसे अपने विद्यार्थिओंको

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