Book Title: Swami Dayanand aur Jain Dharm
Author(s): Hansraj Shastri
Publisher: Hansraj Shastri

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Page 46
________________ ३८ पारगामी हैं ! अस्तु ! हम इनकी ही सेवामें कालकी संख्याका परिमाण समझने के लिए प्रार्थना करते हैं ! कृपया हमको " स्वामीजी " ही समझा देवें कि, कालकी यहां तक ही इति है ! इसके आगे बढ़ने के लिए "स्वामीजी " की आज्ञा नहीं ! परंतु "स्वामीजी महाराज" तो मर गये ! वहांसे आकर हमको- कालकी संख्याका परिमाण बतावें इतनी तो आशा नहीं ! उनकी बनाई हुई पोथियों को उलटा पुलटा कर देखते हैं तो वो भी बिचारी विधवा स्त्रियोंकी तरह उन्हीका नाम चिल्ला २ कर ले रही हैं ! उनको विधातासे भी एक फूट ऊंचा माननेवाले समाजी महाशय कदापि उनको पत्र लिखें तो संभव है कि, उनपर वे उत्तर लिखनेकी कृपा करें ! कि, (१९६०८५२९७६) वर्षपर कालकी संख्याका कीला गाड़ देना ! यदि कोई कहे कि, इससे प्रथम भी कालतो था, तो उसको कह देना तूं मूर्ख है ! तेरेको कुछ भी खबर नहीं ! यह देख " स्वामीजी महाराज" के हाथका लिखा हुआ पत्र ! जो कि उन्होंने अभी ही भेजा है ! 1 सज्जनो ! दिनके बाद रात्रि, और रात्रिके बाद दिन, यह चक्र अनादिकाल से चला आता है, और इसी तरह चला आवेगा । संसार में प्रतिदिन असंख्य प्राणी मरते हैं, और मसंख्य ही उत्पन्न होते हैं । इस जन्म मरणकी परंपराका पता लगाना इतना ही असंभव है, जितनी कि ओंकी गणना करनी ! समय प्रवाहसे इसकी संख्या न किसीने की, और न जो कुछ भी इसके परिमाणके विषयमें वोह केवल जिज्ञासुको वस्तुतत्त्वके बोध गया है । इसी तरह एकसे लेकर परार्द्ध समुद्रके जल बिंदुअनादि अनंत है, कोई कर सकेगा । शास्त्रकारोंने लिखा है, करवाने के लिए लिखा पर्यंत जो गणित '

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