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१०० प्यारे सभ्य पाठको । संसारमें वस्तु तत्त्वको समझनेवाले यदि न्यून संख्यामें हैं तो उसके यथार्य स्वरूपको प्रतिपादन करनेवाले भी स्वामीजी जैसे थोड़े ही महापुरुष निकलते हैं ! इसीलिए संसार उनको अधिक सन्मानकी 'दृष्टिसे अवलोकन करता है ! अपने मुखसे अपनी बड़ाई करनेवालेका चित्र उक्त लेखमें यथावत् जैसा स्वामीजीने बँचा है ऐसा दुसरा कोई बैंच सके यह बात यदि असंभव नहीं तो सहज भी नहीं ! 'परंतु स्वामीजीके उक्त लेखपर विचार करनेसे एक निज्ञासु
मनुप्यके हृदयमें जितने संदेह उत्पन्न होते हैं उन सबको यदि 'एकत्रित करके लिखा जावे तो एक अच्छासा ग्रंथ वन जानेमें भी कुछ संदेह नहीं ! यद्यपि अन्यान्य शंकाओं के संबंधमें इस समय हमको कुछ वक्तव्य नहीं है परंतु एक वातपर हम अवश्य कुछ विचार करना चाहते हैं.
स्वामीजीका उक्त (ईश्वर सबको उपदेश करता है इत्यादि) लेख यदि सत्य है तब तो उनके कथनानुसार ईश्वरको मूल्का भी गुरु समझना चाहिए ! क्योंकि उसने अपने मूंहसे अपनी इतनी बड़ाई की है कि उसका सहस्रांश भी दूसरा करसके ऐसी संभावना नहीं! अपने मुखसे अपनी बड़ाई करनेवालेको मूर्ख तो स्वामीजी स्पष्ट ही बतला रहे हैं ! यदि स्वामीजी झूठ लिख रहे हैं तो उनका अन्यान्य कथन भी ऐसा ही क्यों न माना जाय ? इसलिए स्वामीजीकी लकीरके फकीर महाशयोंसे हमारी प्रार्थना है कि, वे इतना बतलानेकी अवश्य कृपा.करें कि, स्वामीजीके लेखानुसार ईश्वरको मूर्ख कहना, या महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वतीजीको झूठा ठहराना, इन दोनोंमेंसे उनको क्या अभीष्ट है?