Book Title: Swami Dayanand aur Jain Dharm
Author(s): Hansraj Shastri
Publisher: Hansraj Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 110
________________ १०२ और निर्मल बनानेके लिए जितना न्यायमार्ग उपयोगी है उससे कई गुणा अधिक मनुष्य जीवनको बरबाद करनेवाला अन्याय मार्ग है ! अन्याय और पक्षपात इनमें केवल नाम मात्रका अंतर है ! पक्षपातमें यह बड़ा भारी गुण है कि, वह सत्यको अपने नजदीक फटकने नहीं देता ! सत्यके न रहनेसे धर्मकी वहां दाल गले यह तो असंभव ही है ! जहांसे धर्मने अपना दंड कमंडलू उठा लिया वहां तो फिर अल्लाउद्दीनका ही. न्याय शासन चलावेगा! हमारा यह सब लिखनेका प्रयोजनमात्र इतनाही है कि, स्वामाजीने महात्माके जीवनका जो वास्तविक उद्देश होना चाहिए उससे सर्वथा विपरीत ही समझा मालूम देता है ! उनके जविनके किसी भी विभागको फोलकर देखो वहांसे बहुधा अन्यायकी ही सुगंधि आवेगी ! जो कुछ वहां न्यायके परमाणु देखनेमें आते हैं उनकी भी बड़ी मलिन दशा है । ऐसा जीवन धार्मिक संतानको कितना हितकर हो सकता है यह पाठकस्वयं विचार सकते हैं ! स्वामीजीने जो ऊपर लिखी प्राकृत गाथाका अर्थ किया है वह पक्षपातसे. ही सर्वथा ओत प्रोत है ! इसीलिए हमने उसके नीचे लकीर बैंच दी है. विद्वान् वर्गसे. हमारा सविनय निवेदन है कि, वह उक्त गाथा और उसके. (स्वामीजी रचित ) अर्थका बड़े मध्यस्थ भावसे अवलोकन करके स्वामीजीकी निप्पक्षतासे अवश्य परिचय प्राप्त करें! उक्त गाथाका अर्थ बड़ा ही सरल और सुबोध है। बाणिक्य नीतिमें जो "दुर्जनः परिहर्त्तव्यो, विद्ययालङ्कतोपि सन् । मणिना भूषितः सर्पः, किमसौ न भयङ्करः ?॥"

Loading...

Page Navigation
1 ... 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159