Book Title: Swami Dayanand aur Jain Dharm
Author(s): Hansraj Shastri
Publisher: Hansraj Shastri

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Page 119
________________ १११ ... सभ्य वृंदो ! यदि इस प्रकारके निष्पक्ष उपदेशमें भी स्वामीजीको कुंजड़ीके ही बेरोंके स्वम आवे तो यह उनके भाग्यकी बात है ! हमारा इसमें कोई दोष नहीं ! प्रकृतिका नियम ही ऐसा है कि, कुंजड़ेको बेरोका और जौहरीको रत्नोंका ही स्वप्नं आता है ! यदि हम किसी अपेक्षासे स्वामीजीके अर्थको ही ठीक माने तब भी जैनोंका कथन कोई अनुचित नहीं ! क्योंकि अन्य धर्मोंकी अपेक्षाः अपने धर्मको उत्कृष्ट मानना अथवा बतलाना यह प्रत्येक धर्म की रूढ़ी ही है। इससे उचितानुचितका विचार किये विना ही कुंजड़ोंकी उपमा देनी केवल क्षुद्रता है ! स्वामीजी स्थान २ में वैदिक धर्मको ही सब धर्मोंसे श्रेष्ठ और मोक्षके देनेवाला बतलाते हैं, तो क्या उनको कुंजड़ा कहना चाहिए ? हम तो इस प्रकार कथन करनेमें सर्वथा असमर्थ हैं । कदापि उनका कथन ही उनको इस महती उपाधिसे विभूषित करे तो हम विवश हैं ! . सज्जनो! जो मनुष्य अपने पाऑकी तर्फ देखकर नहीं चलता उसे अवश्य महके बल गिरना पड़ता है ! दूसरोंके मजबूत मकानों पर पत्थर वरसानेवालेको प्रथम अपनी फूसकी सौंपड़ीका अवश्य ख्याल कर लेना चाहिए ! दूसरेकी एक आंख काणी करनेके लिए अपनी दोनो ही आंखें खो बैठनेवाला मनुष्य निस्सन्देह सोचने लायक है! . .... . [ड] . . . स्वामी दै० स०. . . सप्पो इकं मरणं, कुगुरु अणंताई देइ. मरणाई। ... ता वर सप्पं गहिरं, मा कुगुरु सेवणं भद्द.!.. ............... ॥ष०.०.३७.।।

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