Book Title: Swami Dayanand aur Jain Dharm
Author(s): Hansraj Shastri
Publisher: Hansraj Shastri

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Page 109
________________ [ज स्वा० द० सं०-- मूल. *बहुगुण विजानिलओ. उस्सुत्तभासी तहावि मुत्तव्यो । ..सह वरमणिजुत्तोविह, विग्घ. करो विसहरो लोएः ।। पष्ठि श० सू० १८ ॥ जैसे विषधर सर्पमें मणि त्यागने योग्य है वैसे जो जैनमतमें नहीं वह चाहे कितना बड़ा धार्मिक पंडित हो उसको त्याग देना ही जैनियोंको उचित है । ( समीक्षक ) देखिये कितनी भूलकी बात है जो इनके चेले और आचार्य विद्वान् होते तो विद्वानोंसे प्रेम करते जब इनके तीर्थकर सहित अविद्वान हैं तो विद्वानोंका मान्य (मान) क्योंकर करें ? क्या मुर्वणको मल वा डम पडेको कोई त्यागता है ? इससे यह सिद्ध हुआ कि विना जैनियोंके वैसे दूसरे कौन पक्षपाती हठी. दुराग्रही विद्या हीन होंगे ? । [ज] समालोचक-सज्जनो ! स्वामीजी एक अच्छे विद्वान् मनुष्य थे, यह बात बहुधा सत्य है ! हम उनको उसी दृष्टिसे देखते हैं जैसे कि एक महा पुरुपको देखना चाहिए ! परंतु उनके जीवनकी दीवारको पक्षपातके कीड़ोंने इतना खोखला बना दिया कि किसी दिन उसके अस्तित्वमें भी आशंका है ! स्वामीजीने जैनमतकी समीक्षा की, यह बुरी बातः नहीं! क्यों कि समीक्षा मनुप्य जीवनको उच्च बनानेका एक सरल साधनः है, परंतु वह यदि न्यायपूर्ण हो ! मनुष्यजीवनको स्वच्छ *बहुगुणविद्यानां निलयोपि गुरुरुत्सूत्रभापी तथापि मोक्तव्यः यथा श्रेष्ट मणियुक्तोपि निश्चये मृत्युकरः विषधरः सर्पः जंगति ।इत्यवचूरिकार ॥

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