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मानते हैं यह प्रकरण रत्नाकरके प्रथम भागमें लिखा है। यह भी बात कभी नहीं घट सकती क्योंकि जिनका अंत अर्थात मर्यादा होती है उनके सब संबंधि अंतवाले ही होते हैं यदि अनंतको असंख्य कहते तो भी नहीं घट सकता किंतु जीवापेक्षा यह बात घट सकती हैं परमेश्वर के सामने नहीं । क्योंकि एक २ द्रव्यमें अपने २ एकर कार्य करण सामर्थ्यको अविभाग पर्यायोंसे अनंत सामर्थ्य मानना केवल अविद्याकी बात है जब एक परमाणु द्रव्यकी सीमा है तो उसमें अनंत विभाग रूप पर्याय कैसे रह सकते हैं ? ऐसे ही एक एक द्रव्यमें अनंत गुण और एक गुण प्रदेशमें अविभाग रूप पर्यायों को भी अनंत मानना केवल बालकपनकी बात है क्योंकि जिसके मधिकरणका अंत है तो उसमें रहनेवालोंका अंत क्यों नहीं ? ऐसी ही लंबी चोड़ी मिथ्या वातें लिखी हैं । " [ सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ ४२३ ]
समालोचक - जैन धर्म के सिद्धांत से स्वामीजी अणुमात्रभी परिचित नहीं थे, यह बात निर्विवाद है ! क्योंकि जिस जिस स्थल में पूर्वपक्ष द्वारा उन्होंने जैन मतका उल्लेख किया है उनमें इतनी भूलें हैं कि, यदि उन सबको दिखलाने के लिए थोड़ा थोड़ा भी लिखा जाय तो संभव है कि, सत्यार्थ प्रकाश जितना एक अन्य पुस्तक बन जाय ! उदाहरण के लिए बारहवां समुल्लास संपूर्ण प्रस्तुत है !!
जैन सिद्धांत द्रव्य और पर्यायका क्या लक्षण वतलाया है ? एवं गुण और पर्यायमें कितना अंतर है ? तथा प्रतिवस्तुमें अनंत पर्यायका होना जैन किस पद्धतिसे मानते हैं और अनंत शब्दका उनके मतमें सांकेतिक अर्थ क्या है ? इत्यादि बातोंको यदि स्वामीजी किसी योग्य जैन विद्वान् से अच्छी तरह