Book Title: Swami Dayanand aur Jain Dharm
Author(s): Hansraj Shastri
Publisher: Hansraj Shastri

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Page 37
________________ करना ! पाठको ! क्षमा कीजिये यह उन्मत्तपना नहीं तो और क्या है ? ___“ स्वामी दयानंद सरस्वती और जगत् ?' 'सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ ४ १५ से ४१८ तकमें "दयानंद सरस्वतीजी " ने जगत्का का ईश्वर है इस विषयका बहुतसा राग आलापन किया है ! यदि " स्वामीजी महाराज " जैनोंके माननीय सिद्धांत 'ग्रंथोंके. वाक्योंको उद्धृत करके उनकी समीक्षा करते तो क्या ही अच्छा होता ! परंतु "स्वामीजी" के ग्रंथमें तो प्रकरण रत्नाकर, रत्नसार, विवेकसार आदि तीन चार भाषाके ग्रंथोंका ही नाम देखने में आता है ! ये ग्रंथ जैनोंके कोई सर्वमान्य सिद्धांत ग्रंथ नहीं हैं. इनमेंभी " स्वामीजी ने कितनी भूलें खाई हैं, यह पाठकोंको आगे विदित होगा। यदि "स्वामीजी" जैनोंके--सम्मतितर्क, स्याद्वादमंजरी, स्याद्वादरत्नाकरावतारिका---प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार वृत्ति, स्याद्वादकल्पलता---शास्त्रवा समुच्चयवृत्ति, अनेकांतजयपताका, खंडनखंडखाद्य-महावीरस्तोत्र, षड्दर्शनसमुच्चय प्रभृति ग्रंथोंके पूर्वपक्षोंको उद्धत करके जैनधर्मके सिद्धांतकी समालोचना करते तो अवश्य ही हम उनके पांडित्य पर फूले न समाते ! परंतु "स्वामीजी ने तो साधारण भाषाके संग्रह ग्रंथोंमें ही अपने पांडित्यकी गढ़डीको. खोलकर जनसाधारणको उसका परिचय दे दिया है! . ... सज्जनो ! ईश्वर जगत्का कर्ता है या कि, नहीं ?. इस विषयमें प्राचीन समयसे ही विवाद चला आता है ! सब दर्शनोंका इसमें एकमत नहीं | सांख्य और मीमांसा दर्शन, ईश्वर घ- महासमुच्चयवनिकालकार र

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