Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 6
________________ [5] हुआ है उसे देखते हुए यदि इसे जैन दर्शन का कोष कह दे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। क्योंकि संख्या से सम्बन्धित किसी भी विषय को तुरन्त उस स्थान पर देखा जा सकता है। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि प्रस्तुत आगम में संख्या के आधार पर अनेक विषयों का इसमें निरूपण है। साथ ही चारों अनुयोगों का समावेश भी इसमें है। फलतः इसका अध्ययन करने वाले साधक को सामान्य रूप से शताधिक विषयों की जानकारी हो जाती है। यही कारण है कि जैन आगम साहित्य में जो तीन प्रकार के स्थविर बताये हैं। उनमें श्रुत स्थविर के लिए "ठाणसमवायधरे" विशेषण आया है। यानी जो साधु आयु और दीक्षा से तो स्थविर नहीं है। पर श्रुत स्थविर (स्थानाङ्ग समवायाङ्ग सूत्र का ज्ञाता) है तो वह कारण उपस्थित होने पर कल्प काल से अधिक समय तक एक स्थान पर रुक सकता है। इस विशेषण से स्पष्ट है कि ठाणं सूत्र का कितना अधिक महत्व है। इतना ही नहीं. व्यवहार सूत्र के अनुसार स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग सूत्रों के ज्ञाता को ही आचार्य, उपाध्याय एवं गणावच्छेदक पद देने का विधान है। इस प्रकार प्रस्तुत आगम सामान्य जैन दर्शन की जानकारी के लिए बहुत ही उपयोगी है। स्थानाङ्ग सूत्र का प्रकाशन पूर्व में कई संस्थाओं से हो चुका है। जिनमें व्याख्या की शैली अलग अलग है। हमारे संघ का यह नूतन प्रकाशन है। इसकी शैली (Pattern) में संघ द्वारा प्रकाशित भगवती सूत्र की शैली का अनुसरण किया गया है। मूलपाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ और आवश्यकतानुसार विषय को सरल एवं स्पष्ट करने के लिए विवेचन दिया गया है। सैलाना से जब कार्यालय ब्यावर स्थानान्तरित हुआ उस समय हमें लगभग ४३ वर्ष पुराने समवायाङ्ग सूत्र, सूत्रकृताङ्ग सूत्र, स्थानाङ्ग सूत्र, विपाक सूत्र के अनुवाद की हस्तलिखित कापियों के बंडल मिले, जो समाज के जाने माने विद्वान् पण्डित श्री घेवरचन्दजी बांठिया "वीरपुत्र" न्यायव्याकरण तीर्थ, जैन सिद्धान्त शास्त्री द्वारा बीकानेर में अन्वयार्थ सहित अनुवादित किए हुए थे। उन कापियों को देखकर मेरे मन में भावना बनी कि क्यों नहीं इन को व्यवस्थित कर इन का प्रकाशन संघ की ओर से किया जाय? इसके लिए .मैंने संघ के अध्यक्ष समाजरत्न तत्त्वज्ञ सुश्रावक श्री जशवन्तलालजी एस. शाह से चर्चा की तो उन्होंने इसके लिए सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी। फलस्वरूप संघ द्वारा समवायाङ्ग सूत्र एवं सूत्रकृताङ्ग सूत्र का प्रकाशन हो चुका है। प्रस्तुत स्थानाङ्ग सूत्र का भी मूल आधार ये हस्त लिखित कापियाँ हैं। साथ ही सुत्तागमे तथा अन्य संस्थाओं से प्रकाशित स्थानाङ्ग सूत्र का भी इसमें सहकार लिया गया है। सर्व प्रथम इसकी प्रेस काफी तैयार कर उसे पूज्य वीरपुत्रजी म. सा. को सेवाभावी सुश्रावक श्री हीराचन्दजी सा. पींचा ने सुनाई। पूज्य श्री ने जहाँ उचित समझा संशोधन बताया। तदनुरूप इसमें संशोधन किया गया। इसके बाद पुनः श्रीमान् पारसमलजी सा. चण्डालिया तथा मेरे द्वारा इसका अवलोकन किया गया। इस प्रकार प्रस्तुत आगम के प्रकाशन में पूर्ण सतर्कता एवं सावधानी बरती गई है। फिर भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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